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________________ भगवई आचार्य भिक्षु ने व्रताव्रत की चौपाई में भी इसी अर्थ का समर्थन किया है। प्राचीन काल में पाठ शोधन और पाठ-मीमांसा की पद्धति प्रायः प्रचलित नहीं थी इसलिए पाठ के विषय में कोई समीक्षा प्राप्त नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर अनुमान किया जा उवनिमंतितपिंडादि- परिभोगविहि-पदं २४८. निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवापडिया अणुप्पविट्टं केइ दोहिं पिंडेहि उवनिमंतेज्जा- एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि । से य तं पडिग्गा हेज्जा, थेरा य से वेस सिया । जत्थेव अणुगवेसमा थेरे पासिज्जा तत्थेव अणुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अणुगवेसमा थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अण्णसिं दाव, एते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिट्ठावेयव्वे सिया || २४९. निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंड - वायपडियाए अणुप्पविट्ठ केइ तिहिं पिंडेहि उवनिमंतेज्जा- एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, दो थेराणं दल - याहि । से य तं पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से Nagar सिया । जत्थेव अणुगवेसमा थेरे पासिज्जा तत्थेव अणुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अगवेसमा थेरे पासिज्जा ते नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अण्णेसिं दावए, एते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिट्ठावेयव्वा सिया । एवं जाव दसहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा, नवरं एवं आ उसो ! अप्पणा भुंजाहि, नव थेराणं इत्यादिक अनेक सचित्त वस्त छै तो श्रावक निसंक सूं अचित्त जाण । ते पिण आपरी तरफ सूं चोकस करने, साधां नैं बेहरावे घणो हरष आण || Jain Education International ९५ श. ८ : उ. ६ : सू. २४४, २४९ सकता है कि यह पाठ द्वादशवर्षीय दुष्काल जैसी स्थिति में रचा गया और फिर वह किसी कालखंड में प्रस्तुत आगम में प्रक्षिप्त हो गया। भाष्य के असंस्तरण और संस्तरण संबंधी उल्लेख से इस अनुमान की पुष्टि होती है। उपनिमंत्रितपिण्डादि- परिभोगविधि पदम् निर्ग्रन्थं च 'गाहावइ' कुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टं कोऽपि द्वाभ्यां पिण्डाभ्यां उपनिमन्त्रयेत्एकम् आयुष्यमन् ! आत्मना भुंक्ष्व, एकं स्थविरेभ्यः देहि । सः च तं प्रतिगृह्णीयात् स्थविरा: च तस्य अनुगवेषयितव्याः स्युः । यत्रैव अनुगवेषयन् स्थविरान् पश्येत् तत्रैव अनुप्रदातव्यः स्यात्, नो चैव अनुगवेषयन् स्थविरान् पश्येत् तं नो आत्मना भुञ्जीत, नो अन्येभ्यः दद्यात्, एकान्ते अनापाते अचित्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यः स्यात् । निर्ग्रन्थं च ' गाहावइ' कुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टं कोऽपि त्रीभिः पिण्डैः उपनिमन्त्रयेत् एकम् आयुष्यमन् ! आत्मना भुंक्ष्व, द्वौ स्थविरेभ्यः दद्यात्। सः च तान् प्रति गृहणीयात् स्थविरा: च तस्य अनुगवेष-यितव्याः स्युः । यत्रैव अनुगवेषयन् स्थविरान् पश्येत् तत्रैव अनुप्रदातव्यः स्यात्, नो चैव अनुगवेषयन् स्थविरान् पश्येत् तान् नो आत्मना भुंजीत, नो अन्येभ्यो दद्यात्, एकान्ते अनापाते अचित्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यः स्यात् । एवं यावत् दशभिः पिण्डैः उपनिमन्त्रयेत्, नवरमएकम् आयुष्यमन्! आत्मना भुंजीत नव स्थविरेभ्यः दद्यात् । शेषं तच्चैव यावत् उपनिमंत्रितपिण्डादि परिभोगविधि - पद २४८. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति दो पिण्डों का उपनिमंत्रण देता है-आयुष्मान् ! एक पिण्ड आप खा लेना और दूसरा पिण्ड स्थविरों को दे देना । वह निग्रंथ उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे। गवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों को देखे वहीं एक पिण्ड उन्हें दे दे। अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई न दे तो उस दूसरे पिण्ड को न स्वयं खाए, न किसी अन्य को दे, एकान्त, अनापात, अचित्त बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उस पिण्ड का वहां परिष्ठापन कर दे। २४९. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति तीन पिण्डों का उपनिमंत्रण देता हैआयुष्मान् ! एक पिण्ड आप खा लेना और दो पिण्ड स्थविरों को दे देना। वह निर्ग्रथ उन तीनों पिण्डों को ग्रहण कर ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे। अनुगवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों को देखे वहीं दो पिण्ड उन्हें दे दे। अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई न दे, तो उन दो पिण्डों को न स्वयं खाएं, न किसी अन्य को दे एकान्त, अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उन पिण्डों का वहां परिष्ठापन कर दे। इस प्रकार इण ते श्रावक रे बोहत निरजरा होवे, तो पिण केवलज्ञानी जाणै । म्हैं तो अटकल सूं उनमान कर्यो छै, For Private & Personal Use Only वले सूतर रा अनुसारा प्रमाणै ॥ १. भिक्षु ग्रंथ रत्नाकार भाग-१ व्रताव्रत की चौपड़, ढाल १५/५-१२। २. बृ. क. भा. गा. १६०८ । www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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