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भगवई
श.८ : उ. ६ : सू. २४७
अभयदेवसूरि ने बहुनिर्जरा और अल्प पाप के पाठ की समीक्षा की है। उन्होंने अप्रासुक आहार देने की स्थिति में बहतर निर्जरा का हेतु चारित्र काय का उपष्टम्भ और अल्पतर पाप का हेतु जीव-वध बननाया है। पाप की अपेक्षा निर्जरा बहुत होती है और निर्जरा की अपेक्षा पाप का बंध अल्पतर होता है।' उन्होंने भाष्यकार के मत को उद्धृत कर लिखा है--आहार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो, उस स्थिति में अशुद्ध अप्रासुक अनवेषणीय दान देने वाला और उसे लेने वाला दोनों अहित पक्ष का आसेवन करते हैं। निर्वाह के लिए पर्याप्त आहार न मिलने की स्थिति में अशुद्ध आहार लेने और देने वाले हित पक्ष का सेवन करते हैं। इस मान्यता के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि द्वादश वर्षीय दुष्काल जैसी परिस्थितियों में इस प्रकार की मान्यता स्थापित हुई है। भाष्यकार ने उसी मान्यता का प्रतिपादन किया है।
अभयदेव सूरि ने एक अन्य संप्रदाय का भी उल्लेख किया है। उसमें परिणाम के आधार पर बहतर निर्जरा और अल्पतर पाप का समर्थन है। परिणाम के प्रामाण्य को प्राधानता देकर मिश्र धर्म का समर्थन किया गया है। उनके मतानुसार किसी विशेष कारण के बिना भी गुणवान पात्र को कोई दाता अप्रासुक आदि दान देता है,
इस स्थिति में परिणाम की विशुद्धि होने पर बहतर निर्जरा और अल्पतर पाप का बंध होता है।
वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने इस विषय का उपसंहार 'तत्त्व केवलीगम्य है-इन शब्दों में किया है।
___आधाकर्म आहार का निषेध आचारांग सूत्र में है, वह सबसे प्राचीन उल्लेख है।"
सूत्रकृतांग, भगवती . उत्तराध्ययन', दशवैकालिक आदि अनेक आगमों में आधाकर्म का निषेध किया गया है। उन स्थलों में बहुतर निर्जरा और अल्पतर पाप का सूत्र कहीं नहीं है। संपूर्ण आगम साहित्य में बहुत निर्जरा और अल्पतर पाप का कोई उल्लेख नहीं है। आचार्य भिक्षु ने इस सूत्र की गहरी समीक्षा की है। जयाचार्य ने प्रस्तुत आलापक की व्याख्या में आचार्य भिक्षु के मत को उद्धृत किया है। उसका सारांश यह है-मुनि को दिया जाने वाला आहार सचित्त है और अनेषणीय है किन्तु दाता अपने व्यवहार में शुद्ध जान कर मुनि को देता है, उससे बहुतर निर्जरा होती है, पाप कर्म का बंध नहीं होता। यहां अल्पतर शब्द निषेध के अर्थ में है। आचार्य भिक्षु ने निष्कर्ष की भाषा में लिखा-मैंने सूत्र के आधार पर इस अर्थ का अनुमान किया है। वास्तविक तत्त्व केवलीगम्य है।"
१. भ. वृ. ८/२४६-गुणवते पात्रायाप्रासुकादि द्रव्यदाने चारित्र-कार्यापष्टम्भो
जीवघातो व्यवहारतश्च चारित्रबाधा च भवति, ततश्च चारित्रकायोपष्टम्भान्निर्जरा, जीवधातादेश्च पापं कर्म नत्र च स्वहेतु सामर्थ्यान पापापक्षया बहुतरा निर्जरा निर्जरापेक्षया चाल्पतरं पापं भवति। २. भ. बृ. ८.२४६-इह च विवेचका मन्यन्ने असंस्तरणादिकारणत वापारसकादिवाने बहुनरनिर्जरा नाकारणे. अन उक्तम्
संथरणमि अशुद्धं दाण्हविगेण्हत दिनयाणहिय।
आउरदिनुतण नं चव हियं असंथरणे। ३, भ, वृ.८.२४६-अन्यत्वाह: अकारणेपि गुणवत्पावायाः प्रासुकादिदाने परिणामवशाद बहुतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं च पापं कर्मनि निर्विशेषणत्वान सूत्रस्य परिणामस्य च प्रमाणत्वात. आह च
परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगडारियसाराणं।
परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं ।। ४. वहीं, ८.२४६ यत्पुनरिह नवं नत्केवलिगम्यम्। ५. आयाग २ १०८-सव्वामगंधं परिण्णाय, निरामगंधी परिवाए। ६. सय, २.१.६५.२२/४९,२५८-१। 9. भ. १.१.४३६.४.१६५.५.६/१४०॥ ८. उनस, २०/४०1 ०. दसवे.३.२-३ १०. भ. जा.२११४३५-१४
च्यार आहार सचिन नै असूझता है, त्यांने थावक नो निसंक सं जाणे सुध मान। आपरी तरफ यूं सूध व्यवहार करै नैं, साधा नै हरष सूं दियो छ दान॥ निण री पात्र में सचिन पायादिक न्हाख्यो,
अथवा सचिन रजादिक लानी छ आय। तिण श्रावक ने कांड खबर नहीं है, पिण व्यवहार सं सुध जाण दिया बहगय ।
इण रीते आहार सचित्त नैं असूझतो छ, श्रावक तो सुध जाणे ने वेहरावै। अल्प पाप ते पाप तणो छै नकारो, चोखा परिणाम सं बोहत निरजरा थावै।। के तो अजाणपणै साधु नैं वेहरावै. निणरी नरफ सूं फासू नैं सूझतो जाण। इण रीते ए पाठ नों अर्थ हुवै तो, अल्प पाप ने पाप तणो छै नकारो, चोखा परिणाम सं बोहत निर जरा थावै॥ के तो अजाणे साधु नैं वेहरावे, निणरी तरफ तूं फासू नै सूझना जाण। इण रीन ए पाठ नौ अर्थ हुवै तो, ने पिण केवलज्ञानी वदे ते प्रमाण।। ऊनी पाणी निसंक सूं श्रावक जाणे छै, तिण पाणी ने घर रा बावर दियो ताय। निण ठाम में काचो पाणी घर रा घाल्यो, निणरी तो श्रावक नैं खबर नै काय।। तिण पाणी नैं श्रावक ऊनो जाण ने, निसंक संसाधां ने दियो वेहराय। निणरै अल्प पाप नै बोहत निरजरा हवै तो, ने पिण केवली नैं देणो भन्लाय।। कोरा चिंणा पड्या छ भूगडादिक में, सचिन गेहं पड्या छ घाणी रे माय। निणरी श्रावक नैं खबर न कांड, सूझता जाणी साधां ने दिया वेहराय।। अचित्त दाखां में सचित्त दाखां पड़ी छै, अचिन खादम में सचित्त खादम छ ताय। निणरी थावक नैं तो खबर न कांड, ने सूझनो जाण नै दियो बहराय॥
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