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________________ छट्ठो उद्देसो : छट्ठा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी व्याख्या श्रमणोपासककृत दान का परिणाम पद समणोवासगकयस्स दाणस्स परिणाम-पदं २४५.समणोवासगस्स णं भंते! तहा-रूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण . पाण - खाइम - साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ? श्रमणोपासककृतस्य दानस्य परिणाम- पदम् श्रमणोपासकस्य भदन्त ! नथारूपं श्रमणं वा माहनं वा प्रासुक-एषणीयेन अशन-पानखाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभयतः किं क्रियते? २४५. भन्ते! तथारूप श्रमण, माहन को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य. स्वाद्य से प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है उसे क्या फल मिलता है? गौतम ! उसके एकान्ततः निर्जरा होती है. पाप कर्म का बंध नहीं होता। गोयमा! एगंतसो से निज्जरा कज्जइ, गौतम ! एकान्तशः तस्य निर्जरा क्रियते, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ॥ नास्ति च तस्य पापं कर्म क्रियते। २४६.समणोवासगस्स णं भंते ! तहा-रूवं श्रमणोपासकस्य भदन्त! तथारूपं श्रमणं वा समणं वा माहणं वा अफासु-एणं माहनं वा अप्रासुकेन अनेषणीयेन अशनअणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम- पान-खाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभयतः किं साइमेणं पडिलाभे-माणस्स किं क्रियते? कज्जइ? गोयमा! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, गौतम! बहुतरिका तस्य निर्जरा क्रियते, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ। अल्पतरका तस्य पापं कर्म क्रियते। २४६. भन्ते! तथारूप श्रमण. माहन को अप्रासुक अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है-उसे क्या फल मिलता है ? गौतम! उसे बहतर निर्जरा होती है, अल्पतर पाप कर्म का बंध होता है। २४७. समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं अस्संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खायपाव कम्मं फासुएण वा, अफासुएण वा, एसणिज्जेण वा, अणेसणिज्जेण वा असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ? श्रमणोपासकस्य भदन्त! तथारूपम् असंयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्म प्रासुकेन वा, अप्रासुकेन वा, एषणीयेन वा, अनेषणीयेन वा अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभयतः किं क्रियते? २४७. भन्ते! तथारूप असंयत, अविरत, अप्रतिहत, अप्रत्याख्यातपापकर्म वाले व्यक्ति को प्रासुक अथवा अप्रासुक एषणीय अथवा अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है उसे क्या फल मिलता है? गौतम! उसके एकान्ततः पापकर्म का बंध होता है, कोई निर्जरा नहीं होती। गोयमा! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जड़, गौतम ! एकान्तशः तस्य पापं कर्म क्रियते. नत्थि से काइ निज्जरा कज्जइ॥ नास्ति तस्य काचित निर्जरा क्रियते। भाष्य १.सूत्र २४५-२४७ प्रस्तुत आलापक के तीन सूत्रों में दान के तीन रूप मिलते हैं। दान लेने वाला देय वस्तु १.संयत प्रासुक एषणीय २.संयत अप्रासुक अनेषणीय ३. असंयत प्रासुक अथवा अप्रासुक एषणीय अथवा अनेवषणीय लाभ एकांत निर्जरा, पाप नहीं बहुतर निर्जरा, अल्पतर पाप एकांत पाप, निर्जरा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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