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भगवई
पण्णत्ता, तं जहा - तिपलिओवम-ट्ठिया
तिसागरोवमट्टिया
तेरस
सागरोवमट्टिइया ॥
२३७. कहिं णं भंते! तिपलिओव-मडिया देवकिव्विसिया परिवसंति ? गोयमा ! उप्पिं जोइसियाणं हिट्ठि सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु, एत्थ णं तिपलिओवमट्टिइया देवकिव्वि- सिया परिवसति ॥
२३८. कहिं णं भंते! तिसागरोव-मट्टिया देवकिव्विसिया परिवसंति ॥ गोयमा! उप्पिं सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं, हिट्ठि सणकुमार - माहिंदेसु कप्पेसु, एत्थ णं तिसागरोव-मट्टिइया देवकिव्विसिया परिवसंति ॥
२३९. कहिं णं भंते! तेरससागरो-मट्टिया देवकिव्विसिया परिवसंति ? गोयमा ! उप्पिं बंभलोगस्स कप्पस्स, हिट्ठि लंतए कप्पे, एत्थ णं तेरस - सोगरोवमइया देवकिव्वि- सिया देवा परिवसंति ॥
२४०. देवकिव्विसिया णं भंते! केसु कम्मादासु देवकिव्विसियत्ताए उववत्तारो भवंति ?
गोयमा ! जे इमे जीवा आयरि पडिणीया, उवज्झायपडिणीया, कुलपडिणीया, गणपडिणीया, संघपडिणीया, आयरिय उवज्झायाणं अयसकारा अवण्णकारा अकित्तिकारा बहूहिं असब्भा- वुब्भावणाहिं, मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं परं च तदुभयं च बुग्गामाणा वुप्पाएमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणा लोइय पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवकिव्विसिएस देव- किव्विसियत्ताए उववत्तारो भवंति तं जहा - तिपलिओवमट्ठितिए वा तिसागरोव - मट्ठतिएसु वा, तेरससागरोवमट्ठितिएस
वा ॥
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तद्यथा - त्रिपल्योपमस्थितिकाः, त्रिसागरोपमस्थितिकाः, त्रयोदशसागरोपमस्थिति
काः ।
कुत्र भदन्त ! त्रिपल्योपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ? गौतम ! उपरि ज्योतिष्काणां, अधः सोधर्मेशानां कल्पानाम्, अत्र त्रिपल्योपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ।
कुत्र भदन्त ! त्रिसागरोपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ! गौतम ! उपरि सौधर्मेशानानां कल्पानाम्, अधः सनत्कुमार- माहेन्द्र कल्पानाम्, अत्र त्रिसागरोपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ।
कुत्र भदन्त ! त्रयोदशसागरोपम- स्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ? गौतम ! उपरि ब्रह्मलोकस्य कल्पस्य, अधः लन्तकस्य कल्पस्य अत्र त्रयोदशसागरोपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः देवाः परिवसन्ति ।
देवकिल्विषिकाः भदन्त ! कैः कर्मादानैः देवकिल्विषिकतया उपपत्तारः भवन्ति ?
गौतम! ये इमे जीवाः आचार्यप्रत्यनीकाः, उपाध्यायप्रत्यनीकाः, कुलप्रत्यनीकाः, गणप्रत्यनीकाः संघप्रत्यनीकाः, आचार्यउपाध्यायानाम् अयशस्काराः अवर्णकाराः अकीर्तिकाराः बहुभिः असद्भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभिनिवेशैः च आत्मानं परं च तदुभयं च व्युद्ग्राह्यन्तः व्युत्पादयन्तः बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नुवन्ति,
प्राप्य
तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्ताः कालमासे कालं कृत्वा, अन्यतरेषु देवकिल्विषिकेषु देवकिल्विषिकतया उपपत्तारः भवन्ति तद् यथात्रिपल्यो- पमस्थितिकेषु वा, त्रिसागरोपमस्थितिकेषु वा त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु वा ।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. २३६-२४० प्रज्ञप्त हैं, जैसे- तीन पल्योपम स्थिति वाले, तीन सागरोपम स्थिति वाले तेरह सागरोपम स्थिति वाले।
२३७. भंते! तीन पल्योपम स्थिति वाले किल्विषिक देव कहां रहते हैं? गौतम! ज्योतिष्क देवों के ऊपर सौधर्म ईशानकल्प देवों के नीचे इनमें तीन पल्योपम स्थिति वाले किल्विषिक देव रहते हैं।
२३८. भंते! तीन सागरोपम स्थिति वाले किल्विषक देव कहां रहते हैं? गौतम! सौधर्म ईशान कल्प के ऊपर सनत्कुमार- माहेन्द्र कल्प से नीचे इनमें तीन सागरोपम स्थिति वाले किल्विषिक देव रहते हैं।
२३९. भंते! तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्विषक देव कहां रहते हैं ? गौतम ! ब्रह्मलोक कल्प से ऊपर, लतिक कल्प से नीचे इनमें तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्विषक देव रहते हैं।
२४०. भंते! किल्विषक देव किन कर्मादानकर्मबंध के हेतुओं के कारण किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न होते हैं? गौतम ! जो ये जीव आचार्य प्रत्यनीक, उपाध्याय- प्रत्यनीक. कुल- प्रत्यनीक, गण प्रत्यनीक, संघ-प्रत्यनीक, आचार्य उपाध्याय का अयश, अवर्ण और अकीर्ति करने वाले, बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा स्व. पर तथा दोनों को भ्रांत करते हुए, मिथ्या धारणा से व्युत्पन्न करते हुए बहुत वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन करते हैं। पालन कर उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर किन्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न होते हैं, जैसे- तीन पल्योपम की स्थिति वालों में, तीन सागरोपम की स्थिति वालों में अथवा तेरह सागरोपम की स्थिति वालों में।
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