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________________ ३२० भगवई श. ९ : उ. ३३ : सू. २३५,२३६ जैसा कि तुम बतला रहे हो।' इस प्रज्ञापना के पश्चात् भगवान महावीर ने लोक और जीव के शाश्वत और अशाश्वत होने की नय-दृष्टि से व्याख्या की। अनेकांत की भाषा में उसका निष्कर्ष यह है-अस्तित्व की दृष्टि से लोक और जीव-दोनों शाश्वत है। पर्याय--परिणमन की दृष्टि से वे दोना अशाश्वत हैं। जमालि का दृष्टिकोण एकांगी हो चुका था इसलिए उसने इस अनेकांत के सिद्धांत को मान्य नहीं किया और वह वहां से चला गया। शब्द-विमर्श ध्रुव आदि के लिए द्रष्टव्य २/४५ का भाष्य। असब्भावुब्भावणा-वितथ अर्थ का प्रकटीकरण। मिच्छत्ताभिनिवेस-मिथ्यात्व का अभिनिवेश। बुग्गाहेमाण-विरुद्ध बात समझाता हुआ। वुप्पाएमाण-दूसरों के पंडितमानी बनाता हुआ। २३५. तए णं भगवं गोयमे जमालिं ततः भगवान् गौतमः जमालिम् अनगारं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव कालगतं ज्ञात्वा यत्रैव श्रमणः भगवान् समणे भगवं महावीरे तेणेव उवाग- महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य च्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं। श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसिता वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-एवं खलु एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी कुशिष्यः अंतेवासी कुसिस्से जमाली नामं जमालिः नाम अनगारः सः भदन्त! अणगारे से णं भंते! जमाली अणगारे जमालिः अनगारः कालमासे कालं कृत्वा कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कुत्र गतः? कुत्र उपपन्नः। कहिं उववन्ने? गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं अयि गौतम! श्रमणः भगवान् महावीरः गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत-एवं खलु ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नाम गौतम! मम अन्तेवासी कुशिष्यः जमालिः अणगारे, से णं तदा ममं एवमाइ- नाम अनगारः, सः तदा मम एवमाचक्षाणस्य क्खमाणस्स एवं भास-माणस्स एवं एवं भाषमाणस्य एवं प्रज्ञापयतः एवं पण्णवेमाणस्स एवं पख्वेमाणस्स प्ररूपयतः एनमर्थं नो श्रद्दधाति नो प्रत्येति एतमद्वं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, नो रोचते, एनमर्थं अश्रद्दधत् अप्रतियन् एतमढे असदह-माणे अपत्तियमाणे । अरोचमानः, द्विः अपि मम अन्तिकात अरोएमाणे, दोच्चं पि ममं अंतियाओ आत्मना अपक्रामति, अपक्रम्य बहुभिः आयाए अवक्कमइ, अवक्कमित्ता बहूहिं। असद्भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभिनिवैशैः असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिः । च आत्मानं च परं च तदुभयं च व्युद्ग्राह्यत् णिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च व्युत्पादयत् बहुनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाई प्राप्य, अर्द्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, अद्धमा- जोषित्वा, त्रिंशत्भक्तानि अनशनेन छित्त्वा सियाए संलेह-णाए अत्ताणं झूसेत्ता, तस्य स्थानस्य अनालोचित-प्रतिक्रान्तः तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता तस्स कालमासे कालं कृत्वा लन्तके कल्पे ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते काल- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु देवकिमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरस- विषिकेषु देवकिल्विषिकतया उपपन्नः । सागरोवमठितीएसु देवकिब्विसि-एसु देवेसु देवकिव्विसियत्ताए उववन्ने। २३५. भगवान गौतम जमालि अनगार को दिवंगत जानकर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए। आकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय का अंतेवासी कुशिष्य जमालि नामक अनगार था। भंते! वह जमालि अनगार कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर कहा गया है? कहां उपपन्न हुआ है? अयि गौतम! इस संबोधन से संबोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-गौतम ! मेरा अंतेवासी कुशिष्य जमालि नामक अनगार था। उसने तब मेरे इस प्रकार के आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करने पर, इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। इस अर्थ पर अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करते हुए उसने दूसरी बार भी मेरे पास से स्वयं अपक्रमण किया। अपक्रमण कर बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा स्व, पर तथा दोनों को भ्रांत करता हुआ, मिथ्याधारणा से व्युत्पन्न करता हुआ बहुत वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, अर्द्धमासिकी संलेखना से शरीर को कृश बना, अनशन के द्वारा तीसभक्त का छेदन कर, उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही कालमास में काल को प्राप्त कर, लांतक कल्प में तेरह सागर की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न हुआ है। २३६. कतिविहा णं भंते! देवकिवि-सिया कतिविधाः भदन्त! देवकिल्विषिकाः २३६. भंते ! किल्विषिक देव कितने प्रकार पण्णत्ता? प्रज्ञप्ताः ? के प्रज्ञप्त है? गोयमा! तिविहा देवकिब्विसिया गौतम ! त्रिविधाः देवकिल्विषिकाः प्रज्ञप्लाः, गौतम! किल्विषिक देव तीन प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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