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भगवई
श.९ : उ. ३३ : सू. २३३,२३४
न कयाइ न भवइ, न कयाइ न नासीत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविस्सइ-भुविं च, भवइ य, भविस्सइ भविष्यति-अभूत च, भवति च, भविष्यति य-धुवे,नितिए, सासए, अक्खए, च-धुवः, नियतः, शाश्वतः, अक्षयः, अब्बए, अवट्ठिए, निच्चे।
अव्ययः, अवस्थितः, नित्यः। असासए जीवे जमाली! जण्णं नेरइए। अशाश्वतः जीवः जमाले! यत् नैरयिकः भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ, भूत्वा तिर्यग्योनिकः भवति, तिर्यग्योनिकः तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, भूत्वा मनुष्यः भवति मनुष्यः भूत्वा देवः मणुस्से भवित्ता देवे भवइ॥
भवति।
था, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है-वह था, है और होगा-वह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। जमालि! जीव अशाश्वत है। वह नैरंयिक होकर तिर्यक्योनिक होता है, तिर्यकयोनिक होकर मनुष्य होता है, मनुष्य होकर देव होता है।
२३४. तए णं से जमाली अणगारे ततः सः जमालिः अनगारः श्रमणस्य २३४. जमालि अनगार ने श्रमण भगवान समणस्स भगवओ महावीरस्स एवमा- भगवतः महावीरस्य एवमाचक्षाणस्य यावत् महावीर के इस प्रकार आख्यान यावत् इक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स । एवं प्रख्पयतः एनमर्थं नो श्रद्दधाति नो प्ररूपणा करने पर इस अर्थ पर श्रद्धा, एतमद्वं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, प्रत्येति नो रोचते, एनमर्थम् अश्रद्दधत् प्रतीति और रुचि नहीं की। इस अर्थ पर एतमट्ठ असहह-माणे अपत्तियमाणे । अप्रतियन अरोचमानः द्विः अपि श्रमणस्य अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करते हुए अरोएमाणे दोच्चं पि समणस्स भगवओ। भगवतः महावीरस्य अन्तिकाद् आत्मना दूसरी बार भी श्रमण भगवान महावीर के महावीरस्स अंतियाओ आयाए अपक्रामति, अपक्रम्य बहुभिः असद्भवोद्- पास से स्वयं अपक्रमण किया। अपक्रमण अवक्कमइ, अवक्कमित्ता बहहिं भावनाभिः मिथ्यात्वाभिनिवेशैः च आत्मानं कर बहुत असद्भाव की उद्भावना की असब्भा-वुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणि- च परं च तदुभयं च व्युद्ग्राह्यत् व्युत्पादयत् और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा वेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति, प्राप्य स्व, पर और दोनों को भ्रांत करता हुआ, बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं अर्द्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषति, मिथ्या धारणा में व्युत्पन्न करता हुआ सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता जोषित्वा त्रिंशत् भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, बहुत वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचित- किया। पालन कर अर्द्धमासिकी संलेखना झूसेइ, झूसेत्ता तीसं भत्ताई अणसणाए प्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा लन्तके के द्वारा शरीर को कृश बना लिया। छेदेइ, छेदेत्ता तस्स ठाणस्स। कल्पे त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु देव- शरीर को कृश बना अनशन के द्वारा अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किल्विषिकेषु देवेषु देवकिल्विषिकतया तीस भक्त (भोजन के समय) का छेदन किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोव- उपपन्नः।
किया। उस स्थान की आलोचना और मठितीएसु देवकिव्विसिएसु देवेसु
प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में काल देवकिवि-सियत्ताए उववन्ने।
(मृत्यु) को प्राप्त कर लांतककल्प में तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न हुआ।
भाष्य १. सूत्र-२३०-२३४
अशाश्वत की पारदर्शी व्याख्या नय के द्वारा की जा सकती है। उस इस आलापक में अनेकांत के सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ है। व्याख्या का अधिकारी दृष्टिवाद (बारहवां अंग) का अध्येता हो जमालि ने अपने आपको केवली बतलाया तब गौतम ने दो प्रश्न पूछे- सकता है। जमालि ने दृष्ट्रिवाद का अध्ययन नहीं किया था इसलिए १. लोक शाश्वत है अथवा अशाश्वत?
वह इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर नहीं दे सका। उसका मन शंका से भर २. जीव शाश्वत है अथवा अशाश्वत?
उठा। उस युग में शाश्वत और अशाश्वत का प्रश्न बहुचर्चित था। भगवान महावीर ने जमालि की शंकाकुल मनोदशा को देखकर दर्शन की दो धाराएं बनी हुई थी-कुछ दार्शनिक शाश्वतवादी थे और कहा-'मेरे बहुत सारे अंतेवासी छद्मस्थ होते हुए भी इन प्रश्नों का कुछ अशाश्वतवादी।
व्याकरण कर सकते हैं, जैसा कि मैं करता हूं पर वे अहंकार की भाषा जमालि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया था। शाश्वत और में नहीं बोलते। छद्मस्थ होते हुए अपने आपको केवली नहीं बतलाते,
१.भ.९२१५
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