________________
भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. २३०-२३३ नो खलु अहं तहा छउमत्था-वक्कमणेणं अवक्कते, अहं णं उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कम-णेणं अवक्कते॥
३१८ ज्ञान-दर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली भूत्वा केवलि-अपक्रमणेन अपक्रान्तः।
पृथक् हुए हैं, वैसे मैं छद्मस्थ- अपक्रमण से अपक्रांत नहीं हुआ हूं, मैं उत्पन्न ज्ञानदर्शनधर, अर्हत्, जिन, केवली होकर केवली-अपक्रमण से अपक्रांत हुआ हूं।
२३१. तए णं भगवं गोयमे जमालिं ततः भगवान् गौतमः जमालिम् अनगारम् २३१. भगवान गौतम ने जमालि अनगार से अणगारं एवं वयासी-नो खलु जमाली! एवमवादीत-नो खलु जमाले! केवलिनः इस प्रकार कहा-जमालि! केवली का केवलिस्स नाणे वा दंसणे वा सेलसि वा ज्ञानं वा दर्शनं वा शैलेन वा स्तभेन वा, ज्ञान और दर्शन पर्वत, स्तम्भ अथवा थंभंसि वा थूभंसि वा आवरिज्जइ वा स्तूपेन वा, आद्रियते वा निर्वार्यते वा, यदि स्तूप से आवृत नहीं होता, निवारित नहीं निवारिज्जइ वा, जदि णं तुम जमाली! त्वं जमाले! उत्पन्नज्ञान-दर्शनधरः अर्हत् होता। जमालि! यदि तुम उत्पन्न ज्ञानउप्पन्न-ना-दसणधरे अरहा जिणे जिनः केवली भूत्वा केवलि अपक्रमणेन दर्शनधर, अर्हत्, जिन, केवली होकर केवलि भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अपक्रान्तः, तदा इमे द्वे व्याकरणे व्याकुरु- केवली-अपक्रमण से अपक्रांत हुए हो तो अवक्कते, तो णं इमाई दो वागरणाई शाश्वतः लोकः जमाले! अशाश्वतः लोकः इन दो प्रश्नों का व्याकरण करोवागरेहि-सासए लोए जमाली! जमाले! शाश्वतः जीवः जमाले! जमालि! लोक शाश्वत है? जमालि! असासए लोए जमाली? सासए जीवे अशाश्वतः जीवः जमाले?
लोक अशाश्वत है? जमालि! जीव जमाली! असासए जीवे जमाली?
शाश्वत है? जमालि! जीव अशाश्वत है?
२३२. तए णं से जमाली अणगारे भगवया ततः सः जमालिः अनगारः भगवता गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए गौतमेन एवम उक्तः सन् शङ्कितः कांक्षितः वितिगिच्छिए भेदसमावण्णे कलुस- विचिकित्सकः भेदसमापन्नः कलुषसमापन्नः समावण्णे जाए या वि होत्था, नो जातः चापि अभवत्, नो शक्नोति भगवतः संचाएति भगवओ गोयमस्स किंचि गौतमस्य किंचिदपि प्रमोक्षमाख्यातुं, वि पमोक्खमाइक्खित्तए, तुसिणीए तृष्णीकः सन्तिष्ठते। संचिट्ठइ॥
२३२. जमालि अनगार भगवान गौतम के
इस प्रकार कहने पर शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुषसमापन्न हो गया। उसने भगवान गौतम को कुछ भी उत्तर देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाया। वह मौन हो गया।
२३३. जमालीति! समणे भगवं महावीरे जमाले इति! श्रमणः भगवान् महावीरः जमालिं अणगारं एवं वयासी-अस्थि णं जमालिम् अनगारम् एवमवादीत्-अस्ति जमाली! ममं बहवे अंतेवासी समणा जमाले ! मम बहवः अन्तेवासिनः श्रमणाः निग्गंथा छउमत्था, जे णं पभू एयं निर्ग्रन्थाः छद्मस्थाः, ये प्रभवः एनं व्याकरणं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं, नो व्याकर्तुम्, यथा अहं, नो चैव एतदप्रकारां चेव णं एतप्पगारं भासं भासित्तए, जहा भाषां भाषितुम्, यथा त्वम्। णं तुम। सासए लोए जमाली! जंन कयाइ नासि, शाश्वतः लोकः जमाले ! यत् न कदापि न कयाइ न भवइ, न कयाइ न नासीत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविस्सइ-भुविं च, भवइ य, भविस्सइ भविष्यति-अभूत् च, भवति च, भविष्यति य-धुवे, नितिए, सासए, अक्खए, च,-ध्रुवः. नियतः. शाश्वतः, अक्षयः, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे।
अव्ययः अवस्थितः, नित्यः। असासए लोए जमाली! जं ओसप्पिणी अशाश्वतः लोकः जमाले! यत् अवसर्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भूत्वा उत्सर्पिणी भवति, उत्सर्पिणी भूत्वा भवित्ता ओसप्पिणी भवइ।
अवसर्पिणी भवति। सासए जीवे जमाली! जंन कयाइ नासि, शाश्वतः जीवः जमाले! यत् न कदापि
२३३. जमालि! श्रमण भगवान महावीर ने
जमालि अनगार से इस प्रकार कहाजमालि! मेरे बहुत अंतेवासी श्रमणनिर्ग्रन्थ छद्मस्थ हैं, वे इन प्रश्नों का व्याकरण करने में समर्थ हैं, जैसे मैं । वे इस प्रकार की भाषा नहीं बोलते, जैसे तुम। जमालि! लोक शाश्वत है। वह कभी नहीं था, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है-वह था, है और होगा-वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। जमालि! लोक अशाश्वत है। वह अवसर्पिणी होकर उत्सर्पिणी होता है, उत्सर्पिणी होकर अवसर्पिणी होता है। जमालि! जीव शाश्वत है। वह कभी नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org