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भगवई
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श.९: उ.३३ : सू. २३०
मृत्पिण्ड से घट की भांति खर विषाण क्यों नहीं पैदा होगा?
जमालि ने श्रमण निग्रंथों के द्वारा दिए गए इस उत्तर को अपने मत का आधार बनाया-बिछौना किया नहीं गया है, किया जा रहा है। (भगवती ९/२२७-२८) इस विषय में भाष्यकार की वक्तव्यता यह है-जिस आकाश देश में जिस समय बिछौना बिछाया गया, वह आस्तीर्ण है। जिस आकाश देश में जिस समय बिछौना बिछाया जा रहा है, वह आस्तीर्यमाण है। इस नय से आस्तीर्यमाण को आस्तीर्ण कहा गया है।
भगवान महावीर के सिद्धांत को व्यवहार नय और निश्चय नय-दो दृष्टियों से देखना आवश्यक है। व्यवहार नय के अनुसार क्रियमाण अकृत है, यह माना जा सकता है। निश्चय नय के अनुसार कार्य-काल और निष्ठा-काल एक होता है इसलिए मिट्टी के खनन का काल और उसका निष्ठा-काल एक है। जो कार्य जिस समय प्रारंभ किया जाता है, वह उस समय निष्पन्न हो जाता है। इस अपेक्षा से क्रियमाण कृत होता है।
जमालि ने क्रियमाण कृत' के सिद्धांत के प्रति अनास्था व्यक्त की। उस समय कुछ श्रमण निर्ग्रन्थों ने जमालि के विचार से सहमति प्रकट की और वे उनके साथ रह गए। कुछ श्रमण निर्ग्रन्थों ने उनके विचार से असहमति प्रकट की और वहां से प्रस्थान कर भगवान
महावीर के पास आ गए।
जिनभद्रगणी ने प्रियदर्शना के प्रतिबुद्ध होने की घटना का उल्लेख किया है। प्रस्तुत आगम में उसकी कोई चर्चा नहीं है। साध्वी प्रियदर्शना जमालि के अनुराग से उनके ही पास रही। एक बार वह कुंभकार द्रंक घर में ठहरी। ढंक के भगवान महावीर का श्रावक था और तत्त्व का जानकार था। उसने साध्वी प्रियदर्शना को प्रतिबोध देने के लिए योजना बनाई। आवा से एक अंगारा लिया और साध्वी प्रियदर्शना की संघाटी(साड़ी, उत्तरीय वस्त्र) पर डाल दिया। संघाटी का अंचल जलने लगा।
प्रियदर्शना बोली-श्रावक! यह क्या किया? मेरी संघाटी जल गई।
ढंक-संघाटी जल रही है। जल गई है, यह कैसे कहा? आपके मतानुसार वह दह्यमान है, अभी दग्ध नहीं है-जल रही है, अभी जली नहीं है।
इस प्रज्ञापना के साथ ही वह प्रतिबुद्ध हो गई। वह जमालि के पास गई और उसे समझाने का प्रयत्न किया। जमालि अपने आग्रह को छोड़ नहीं सका। उसके पास जो श्रमण-निर्ग्रन्थ थे. वे प्रतिबुद्ध हो गए। प्रियदर्शना और सब श्रमण-निर्ग्रन्थ जमालि को छोड़कर भगवान महावीर की शरण में चले गए।
२३०. तए णं से जमाली अणगारे ततः सः जमालिः अनगारः अन्यदा २३०. 'जमालि अनगार किसी समय उस
अण्णया कयाइ ताओ रोगायंकाओ कदाचित् तस्मात् रोगातङ्कात् विप्रमुक्तः रोग आतंक से विप्रमुक्त होकर हृष्ट हो विप्पमुक्के हटे जाए, अरोए वलिया। हृष्टः जातः, अरोगः बलितशरीरः गया। नीरोग और शरीर से बलवान सरीरे सावत्थीओ नयरीओ कोट्ठगाओ श्रावस्त्याः नगर्याः कोष्ठकात् चैत्यात् होकर श्रावस्ती नगरी से कोष्ठक चैत्य से चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख- प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य पूर्वानुपूर्वी प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर मित्ता पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामा- चरन, ग्रामानुग्रामं दवन् यत्रैव चम्पानगरी, क्रमानुसार विचरण और ग्रामानुग्राम णुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी, यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् विहरण करते हुए जहां चंपा नगरी थी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य
जहां पूर्णभद्र चैत्य था, जहां श्रमण भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अदूरसामन्ते भगवान महावीर थे, वहां आया। वहां उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ स्थित्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं एवम- आकर श्रमण भगवान महावीर के न अति महावीरस्स अदूरसामते ठिच्चा समणं वादीत-यथा देवानुप्रियाणां बहवः अन्ते- दूर न अति निकट स्थित होकर श्रमण भगवं महावीरं एवं वयासी-जहा णं वासिनः श्रमणाः निर्ग्रन्थाः छद्मस्थापक्रम- भगवान महावीर से इस प्रकार कहादेवाणप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णेन अपक्रान्ताः , नो खलु अहं तथा देवानुप्रिय! जैसे बहुत अंतेवासी श्रमणनिग्गंथा छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कंता, छद्मस्थापक्रमणेन अपक्रान्तः. अहं उत्पन्न- निग्रंथ छद्मस्थ- अपक्रमण से अपक्रात
१. वि. भा.गा.२३१४ की वृनि। २. वि. भा. गा.२३२१
जे जत्थ नभादेसे अत्थुव्वइ जत्थ जत्थ समयम्मि।
तं तत्थ तत्थमत्थुयमत्थुव्वंतं पि तं चेव॥ आस्तीर्यमाणसंस्तारकस्य यद्यावन्मात्र नभोदेशे यत्र यत्र समये 'अत्युव्वइ' आस्तीर्यत तत् तावन्मात्र तस्मिन्नभोदेशे तत्र तत्र समय आस्तीर्णमेव भवति, आस्तीर्यमाणमपि च नदेवोच्यते। ३. वि. भा. गा. २३२१ की वृत्ति-सर्वनयात्मकं हि भगवद्वचनम्। नतश्च 'क्रियमाणमकृतम्' इत्यपि भगवान महावीर कथञ्चिद् व्यवहारनयमतेन मन्यत एवं परं 'चनमाणे चलिः' 'उईरिजमाणे उईशि' इत्यादि सूत्राणि
निश्चयनयमतेनैव प्रवृत्तानि। तन्मतेन च 'क्रियमाणं कृतं' 'संस्तीर्यमाणं संस्तृतम्' इत्यादि सर्वमुपपद्यत एव। निश्चयो हि मन्यते-प्रथमसमयादेव घटः कर्तुं नारब्धः किंतु मृदानयनमर्दनादीनि प्रतिसमयं परापर. कार्याण्यारभ्यते, तेषां च मध्ये यद् यत्र समय प्रारभ्यते तत्तत्रैव निष्पद्यते, कार्यकालानिष्ठाकालयोरेकत्वात् अन्यथा पूर्वोक्तदोषप्रसंगात्। ततः क्रियमाणं कृतमेव भवति। ४. वि. भा. गा. २३२५-२३३१॥ ५. वही, गा. २३३२
इच्छामो संबोहणमज्जो! पियदसणादओ दकं । वो जमालिमेक्कं मोत्तॄण गया जिणसगासं॥
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