SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श.९ : उ. ३३ : सू. २२९ ३१६ भगवई हे? महावीर की बहिन का नामोल्लेख नहीं है। महावीर की पुत्री सुदर्शना अभिभूत होकर उन्होंने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बिछौना करने को कहा। का जमालि के साथ विवाह हुआ था। उसके तीन नाम बतलाए गए श्रमण-निर्ग्रन्थों ने उनके आदेश को शिरोधार्य कर बिछौना करना हैं-ज्येष्ठा, सुदर्शना और अनवद्यांगी। जमालि पांच सौ पुरुषों के शुरू कर दिया। साथ महावीर के पास दीक्षित हुआ और सुदर्शना हजार स्त्रियों के जमालि ने उनसे पूछा-क्या बिछौना कृत है या किया जा रहा साथ प्रवजित हुई। मल्लधारी हेमचन्द्र की यह व्याख्या नियुक्ति की गाथा से श्रमण-निर्ग्रन्थ-बिछौना कृत नहीं है, किया जा रहा है। संवादी नहीं है। इस गाथा की संवादी व्याख्या नियुक्ति की दीपिका इस उत्तर को सुनकर जमालि के मन में ऊहापोह उत्पन्न हुआ। में मिलती है। उसके अनुसार महावीर की बड़ी बहिन का नाम महावीर कहते हैं-चलमाणे चलिए यह सिद्धांत मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष था-सुदर्शना, उसका पुत्र था जमालि। महावीर की पुत्री उसकी भार्या दिखाई दे रहा है-बिछौना क्रियमाण है, कृत नहीं है। थी। उसके दो नाम थे अनवद्यांगी और प्रियदर्शना।' जमालि के ऊहापोह को जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ने तार्किक आयारचूला और पर्युषणा कल्प से दीपिकाकार के मत को शैली में प्रस्तुत किया है। यदि क्रियमाण कृत है तो सत् को करने की समर्थन मिलता है। श्रमण भगवान महावीर की ज्येष्ठ भगिनी का नाम स्थिति उत्पन्न होगी। असत् को किया जाता है। सत् को कभी नहीं सुदर्शना और उनकी पुत्री का नाम अनवद्या और प्रियदर्शना था। किया जाता। इसलिए कृत क्रियमाण नहीं हो सकता। यह पक्ष है। प्रस्तुत शतक में उल्लेख है-जमालि के आठ पत्नियां थी। इसका हेतु है-कृत विद्यमान होता है इसलिए इसका पुनः करण नहीं उनका नामोल्लेख नहीं है। होता। कृत को किया जाता है, यह अभ्युपगम हो तो करने की क्रिया अनगार जमालि ने भगवान महावीर के पास स्वतंत्र विहार की अनवरत चलेगी। क्रिया की परिसमाप्ति कभी नहीं होगी। अनुमति मांगी। भगवान मौन रहे और जमालि ने स्वतंत्र विहार के दूसरा तर्क है-क्रिया के आरंभ क्षण में कार्य निष्पन्न नहीं होता। लिए प्रस्थान कर दिया। इस घटना के साथ अनेक प्रश्न जुड़े हुए हैं- क्रिया के अंतिम क्षण में निष्पन्न होता है इसलिए क्रियमाण कृत नहीं भगवान् मौन क्यों रहे? जमालि को स्वतंत्र विहार करने से हो सकता।" क्यों नहीं रोका ? क्या जमालि का स्वतंत्र विहार अनुशासन का अभयदेव सूरि के अनुसार बहरतवाद का पक्ष यह है-कृत अतिक्रमण नहीं है? अतीत काल का निर्देश है। क्रियमाण वर्तमान काल का निर्देश है। इन प्रश्नों के उत्तर में वृत्तिकार द्वारा प्रस्तुत हेतु यह है-भगवान बिछौना करने वाले साधुओं ने कहा-बिछौना किया जा रहा है, महावीर ने भावी दोष को ध्यान में रखकर जमालि की प्रार्थना की। बिछौना किया नहीं गया है। इस पर विमर्श कर जमालि ने उपेक्षा की। कहा-क्रियमाण कृत है. यह अभ्युपगम संगत नहीं है। जमालि के पक्ष वीतराग के अनुशासन के तीन तत्त्व होते हैं का निरसन करने में अभयदेव सूरि ने विशेषावश्यक भाष्य का • हितानुकूल निर्देश। अनुसरण किया है। भाष्यकार के अनुसार अकृत अविद्यमान है, उसे • हितानुकूल निषेध। किया नहीं जाता। विद्यमान वस्तु में पर्याय विशेष का आधान होता है • अहितानुगामी आग्रह की उपेक्षा। इसलिए किसी दृष्टि से उसमें क्रिया संगत है। अविद्यमान वस्तु में यह जमालि पित्तज्वर की व्याधि से ग्रस्त हो गए। वेदना से सर्वथा असंभव है। यदि करणावस्था में कार्य को असत माना जाए तो १. वि. भा. गा. २३०६ की वृत्ति इहव भरतक्षेत्रे कुंडपुर नाम नगरम। तत्र च ५. भ. वृ.९/२१७- भाविदोषत्वेनोपक्षणीयत्वात्तस्यति। भगवतः महावीरस्य भागिनेयो जमालि म राजपुत्र आसीत्। तस्या च भार्या ६.वि. भा. गा. २३१०श्रीमन्महावीरस्य दुहिता। तस्याश्च ज्येष्ठेति वा सुदर्शनति वा कयमिह न कज्जमाणं. सब्भावाओ चिरंतनघदोव्व। अनवद्यांगीति वा नामेति। तत्र पंचशतपुरुषपरिवारो जमालिर्भगवान् अहवा कयंपि कीरइ. कीरउ किच्छ न य सम्मनी।। महावीरस्यान्तिके प्रव्रज्यां जग्राह्र। सुदर्शनाऽपि सहस्रस्त्रीपरिवारा .वि. भा. गा. २३१२तदनुप्रवजिता ॥ नारंभेच्चियं दीसइ. न सिवादद्धाप दीसइ नदंते। २. आवश्यक नि, दीपिका, पृ. १४२. गाथा १२६-श्रीवीरस्य ज्येष्ठस्वसुः नो नहि किरियाकाने, जुत्तं कन्जं नदंतम्मि। सुदर्शनायाः सुतो जमालि पंचशतयुक् तद् भार्या च श्री वीरपुत्री अनवधांगी ८. भ, वृ.९/२२८-किं कडे कज्जइ ति किं निष्पन्न उत निष्पाद्यते? अनेनातीत प्रियदर्शनाउन्याह्या सहसयुक् प्रावाजीत्। काल निर्देशन वर्तमानकालनिर्देशन च कृतक्रियमाणयोभेद उक्तः। ३. (क) आ. चूला १५/२, २३१- समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जेट्ठा उत्तरेऽप्येवमेव, तदेवं संस्तारक-कर्तृसाधुभिरपि क्रियमाणस्याकृततोक्का, भइणी सुदंरणा कासवी गोत्तेणं। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स धूया ततश्चासी स्वकीयवचनसंस्तारककर्तृसाधुवचनयोर्विमर्शात् प्ररूपितवानकासवी गोतेणं। तीस णं दो नामधेज्जा एवमाहिति तं जहा-१. अणोज्जा क्रियमाणं कृतं यदभ्युपगम्यते तन्न सङ्गच्छते। ति वा २. पियदखणा ति वा। ९.वि. भा. गा.२३१३(ख) पज्जो० स. ७०-११। थेराण मयं नाकयमभावो कीराा खपुप्फ व। ४. भ.१.११३॥ अह व अकयं पि कीरइ कीरउ नो खरविसाणं पि॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy