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भगवई संथरिज्जमाणे असंथरिए। तम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निजरिज्जमाणे वि अनिज्जिण्णे।।
श.९ : उ.३३ : सू. २२८,२२९ भी अचलित है यावत् निर्जीर्यमार्ण भी अनिर्जीर्ण है।
२२९. तए णं तस्स जमालिस्स ततः तस्य जमालेः अनगारस्य एवमा- २२९. जमालि अनगार के इस प्रकार अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव चक्षाणस्य यावत् प्ररूपयतः अस्त्येके आख्यान यावत् प्ररूपणा करने पर कुछ परूवेमाणस्स अत्थेगतिया समणा श्रमणाः निर्ग्रन्थाः एनमर्थं श्रद्दधति श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस अर्थ पर श्रद्धा, निग्गंथा एयमद्वं सद्दहति पत्तियंति प्रतीयन्ति रोचन्ते, अस्त्येके श्रमणाः प्रतीति और रुचि की. कुछ श्रमणरोयंति, अत्थेगतिया समणा निग्गंथा निर्ग्रन्थाः एनमर्थं नो श्रद्दधति नो निर्ग्रन्थों ने इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति एयम४ नो सद्दहति नो पत्तियंति नो प्रतीयन्ति नो रोचन्ते। तत्र ये ते श्रमणाः । और रुचि नहीं की। जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों रोयंति। तत्थ णं जे ते समणा निग्गंथा निर्ग्रन्थाः जमालेः अनगारस्य एनमर्थ ने जमालि अनगार के इस अर्थ पर श्रद्धा, जमालिस्स अणगारस्स एयमटुं सद्दहति श्रद्दधति, प्रतीयन्ति रोचन्ते, ते जमालिं प्रतीति और रूचि की, वे जमालि अनगार पत्ति-यंति रोयंति, ते णं जमालिं चेव अनगारम् उपसंपद्य विहरन्ति। तत्र ये ते को ही उपसंपन्न कर विहार करने लगे। अणगारं उवसंपन्जित्ता णं विहरंति। तत्थ श्रमणाः निर्ग्रन्थाः जमालेः अनगारस्य जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार णं जे ते समणा निग्गंथा जमालिस्स एनमर्थं नो श्रद्दधति नो प्रतीयन्ति नो के इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि अणगारस्स एयमद्वं नो सद्दहति नो । रोचन्ते, ते जमालेः अनगारस्य अन्तिकात् नहीं की, उन्होंने जमालि अनगार के पास पत्तियंति नो रोयंति, ते णं जमालिस्स कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, से कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, अणगारस्स अंतियाओ कोट्ठगाओ प्रतिनिष्क्रम्य पूर्वानुपूर्वी चरन्तः ग्रामानुग्राम प्रतिनिष्क्रमण कर क्रमानुसार विचरण चेइयाओ पडिनिक्खमंति, पडिनि- दवन्तः यत्रैव चम्पानगरी, यत्रैव पूर्णभद्रं और ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए जहां क्खमित्ता पुव्वाणुपुदि चरमाणा चैत्यम् यत्रैव श्रमण: भगवान् महावीरः । चंपा नगरी थी. जहां पूर्णभद्र चैत्य था. गामाणुग्गामं दूइज्जमाणा जेणेव चंपा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य श्रमणं जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां नयरी, जेणेव पुण्णभहे चेइए, जेणेव भगवन्तं महावीरं त्रिःआदक्षिण-प्रदक्षिणां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर समणे भगवं महावीरे तेणेव कुर्वन्ति, कृत्वा वन्दते नमस्यन्ति, वन्दित्वा को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं नमस्यित्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरम् प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदनमहावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं उपसंपद्य विहरन्ति।
नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर करेंति, करेत्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता
श्रमण भगवान महावीर को उपसंपन्न कर नमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उवसंप
विहार करने लगे। ज्जित्ता णं विहरंति॥
भाष्य
१. सूत्र-२२६-२२९
इस आलापक में बहुरतवाद की स्थापना से संबद्ध घटना का उल्लेख है। स्थानांग में भगवान महावीर के शासन में होने वाले सात निलवों का निर्देश है। इनमें प्रथम निाव का नाम बहुरतवाद और उसके धर्माचार्य का नाम जमालि बतलाया गया है।
भगवान महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, उसके चौदह वर्ष बीत जाने पर बहुरतवादी दृष्टि का उद्भव हुआ। उद्भव का प्रसंग सूत्रांक ९/२२३ से २२९ में वर्णित है।
आवश्यक नियुक्तिकार ने इस सिद्धांत की समीक्षात्मक चर्चा की है। चर्चा के प्रारंभ में बहुरतवाद के प्रवर्तक जमालि का संक्षिप्त परिचय भी दिया है। उनके अनुसार भगवान महावीर की ज्येष्ठ भगिनी का नाम सुदर्शना। उसके पुत्र का नाम जमालि। महावीर की पुत्री के दो नाम अनवद्या और प्रियदर्शना। उसका विवाह जमालि के साथ हुआ था।
___ मल्लधारी हेमचन्द्र ने उक्त गाथा की व्याख्या में लिखा है-जमालि कुण्डपुर का राजकुमार और महावीर का भानजा था। इसमें
१. ठाणं ७/१४०-१४२ २. आवश्यक नियुक्ति गा. १२५
चोदसवासाणि तया जिणेण, उप्पाडियस्स नाणस्स। तो बहुरयाण दिट्ठी, सावत्थी ए समुप्पन्ना।।
३. वही, गा. १२६
जिट्टा सुदंसणा जमालिणोज्ज, सावत्थि तेंदुगुज्जाणे। पंचसया य सहस्सं, ढंकेण जमालि मोत्तूणं ।।
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