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________________ श. ९ : उ. ३३ : सू. २४१-२४३ २४१. देवकिव्विसिया णं भंते! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्ख एणं, ठितिक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कह गच्छंति ? कहिं उववज्जंति ? गोयमा ! जाव चत्तारि पंच नेरइयतिरिक्खजोणिय मणुस्स देवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्व- दुक्खाणं अंतं करेंति, अत्थेगतिया अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरि हंति ॥ २४२. जमाली णं भंते! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे हाहारे तुच्छाहारे अरसजीवी विरसजीवी अंतजीवी पंतजीवी लहजीवी तुच्छजीवी उवसंतजीवी पसंतजीवी विवित्तजीवी ? हंता गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी ॥ २४३. जति णं भंते! जमाली अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमट्ठितिएस देवकिव्विसिएस देवेसु देवकिव्विसियत्ताए उववन्ने ? गोयमा ! जमाली णं अणगारे आयरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए, आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकार अकित्ति - कारए बहूहिं असम्भाबुब्भावणाहिं, मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं परं च तदुभयं च बुग्गाहे-माणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, अद्ध-मासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरस - सागरोवमट्ठितिएस देवकिव्विसिएसु देवेस देवकिव्विसियत्ताए उववन्ने । Jain Education International ३२२ देवकिल्विषिकाः भदन्त ! तस्मात् देवलोकात् आयुक्षयेण, 'भवक्षयेण, स्थितिक्षयेणं अनन्तरं चयं च्युत्वा कुत्र गमिष्यन्ति ? कुत्र उपपत्स्यन्ते ? गौतम! यावत् चत्वारि पञ्च नैरयिकतिर्यग्योनिक मनुष्य देवभवग्रहणानि संसारम् अनुपर्यय ततः पश्चात् सिध्यन्ति 'बुज्झंति' मुञ्चन्ति परिनिर्वान्ति सर्वदुक्खानाम् अन्तं कुर्वन्ति, अस्त्येक अनादिकं च 'अणवदरगं' दीर्घमध्वानं चतुरन्तं संसारकन्तारम् अनुपर्यटन्ति । जमालिः भदन्त ! अनगारः अर-साहारः विरसाहार: अन्त्याहारः प्रान्त्याहारः रूक्षाहार : तुच्छाहारः अरसजीवी विरसजीवी प्रान्त्यजीवी रूक्षजीवी तुच्छ जीवी उपशान्तजीवी प्रशान्तजीवी विविक्तजीवी ? हन्त गौतम! जमालिः अनगारः अरसाहारः विरसाहारः यावत् विविक्तजीवी । यदि भदन्त । जमालिः अनगारः अरसाहारः विरसाहारः यावत् विविक्तजीवी कस्मात् भदन्त ! जमालिः अनगारः कालमासे कालं कृत्वा लन्तके कल्पे त्रयोदश-सागरोपमस्थितिकेषु देवकिल्विषिकेषु देवेषु देवकिल्विषिकतया उपपन्नः ? गौतम! जमालिः अनगारः आचार्यप्रत्यनीकः, उपाध्यायप्रत्यनीकः, आचार्यउपाध्यायानाम् अयशस्कारकः अवर्णकारकः अकीर्तिकारकः बहुभिः असद्भावोद्भाव - नाभिः मिथ्यात्वाभिनिवेशैः च आत्मानं परं च तदुभयम् च व्युद्ग्राह्यन् व्युत्पादयन् बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्य, अर्द्धमासिक्या संलेखनया त्रिंशत भक्तानि अनशनेन छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचित प्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा लन्तके कल्पे त्रयोदश-सागरोपमस्थितिकेषु देवकिल्वि-षिकेषु देवेषु देवकित्विषिकतया उपपन्नः । For Private & Personal Use Only भगवई २४१. भंते! किल्विषक देव आयु-क्षय भवक्षय और स्थिति क्षय के अनंतर उन देवलोकों से च्यवन कर कहां जाते हैं? कहां उपपन्न होते हैं? गौतम ! यावत् चार-पांच नैरयिक, तिर्यक् -योनिक, मनुष्य और देव भव ग्रहण कर संसार में अनुपर्यटन कर उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत होते हैं, सब दुःखों का अंत करते हैं। कुछ देव आदि अंतहीन, दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार- कांतार में अनुपर्यटन करते हैं। २४२. भंते! जमालि अनगार ने अरसआहार, विरस आहार, प्रांत आहार, रूक्ष आहार और तुच्छ आहार किया । दह अरसजीवी, विरसजीवी, अंतजीवी, प्रांतजीवी, रुक्षजीवी, तुच्छजीवी, उपशांतजीवी, प्रशांतजीवी और विविक्तजीवी था। हां, गौतम! जमालि अनगार ने अरस आहार, विरस आहार किया यावत् वह विविक्तजीवी था। २४३. भंते! यदि जमालि अनगार ने अरस आहार, विरस आहार किया यावत् वह विविक्तजीवी था तो भंते! जमालि अनगार कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर लांतककल्प में तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्विधिक देवलोक में किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न हुआ ? गौतम! जमालि अनगार आचार्य का प्रत्यनीक, उपाध्याय का प्रत्यनीक, आचार्य उपाध्याय का अयश, अवर्ण और अकीर्ति करने वाला था। वह बहुत असद् भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व अभिनिवेश के द्वारा स्व. पर तथा दोनों को भ्रांत करता हुआ, मिथ्याधारणा में व्युत्पन्न करता हुआ, वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर, अर्द्धमासिकी संलेखना में अनशन के द्वारा तीस भक्त का छेदन कर, उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में काल को प्राप्त कर लांतक कल्प में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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