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________________ श. ८ : उ. २ : सू. १४७-१५० दलिक के उदय से होने वाला जीव का परिणाम ।' जयाचार्य ने मिथ्यादृष्टि को क्षायोपशमिक भाव बतलाया है। उन्होंने इसकी मीमांसा करते हुए लिखा है- अनुयोगद्वार में उदय निष्पन्न के प्रकरण में मिध्यादृष्टि का उल्लेख है, वह विपरीत श्रद्धात्मक नाणलद्धिं पडुच्च-नाणि अण्णाणित्त पदं १४७. नाणलद्रिया णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी । अत्थेगतिया दुण्णाणी, एवं पंच नाणाई भयणाए । १४८. तस्स अलब्द्धीया णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी । अत्थेगतिया दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णाणा भयणाए ।। १४९. आभिणिबोहियनाणलद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी। अत्थेगतिया दुण्णाणी, चत्तारि नाणाई भयणाए। १५०. तस्स अलद्रिया णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि। जे नाणी ते नियमा एगनाणी केवलनाणी । जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । एवं सुयनाणलद्धिया वि । तस्स अलद्धिया वि जहा आभिणिबोहिय २. अणु. २७५ ३. वही, २८५ ४. भ. जो. २ / १३६ / ३९-४७ १. २. ३. १. भ. वृ. ८/९४२ - मिथ्यादर्शनमशुद्धमिध्यात्व - दलिकोदयसमुत्थो जीव परिणामः । Jain Education International ५० ज्ञानलब्धिं प्रतीत्य ज्ञानि-अज्ञानित्व पदम् ज्ञानलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ? भगवई मिथ्यादृष्टि औदायिक भाव है। वह इस लब्धि के प्रकरण में विवक्षित नहीं है।" अनुयोगद्वार में क्षायोपशमिक भाव के प्रकरण में मिथ्यादृष्टि का उल्लेख है। यहां वह विवक्षित है। * गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः । अस्त्येकके द्वि-ज्ञानिनः, एवं पञ्च ज्ञानानि भजनया । तस्य अलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ? गौतम ! नो ज्ञानिनः अज्ञानिनः । अस्त्येकके द्वि- अज्ञानिनः, त्रीणि अज्ञानानि भजनया । आभिनिबोधिकलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ? गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः । अस्त्येकके द्वि-ज्ञानिनः, चत्वारि ज्ञानानि भजनया । दर्शन मोह उपाधि, उपशम क्षायक क्षयोपशम । सम्यक्त उपशम आदि, समदर्शण लद्धी तिको॥ ३९ ॥ दर्शन मोह पिछाण क्षयोपशम थी नीपजे । मिथ्यादृष्टि सुजाण, दृष्टि समामिथ्या वली ॥ ४० ॥ मिथ्याती रै ताम, ऊंधी श्रद्धा जेतली । मिध्यादृष्टिज नाम, एह उदय भावे कही ॥ ४१ ॥ तस्य अलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ? गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि । ये ज्ञानिनः ते नियमात् एकज्ञानिनः - केवलज्ञानिनः । ये अज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्विअज्ञानिनः, त्रीणि अज्ञानानि भजनया । एवं श्रुतज्ञानलब्धिकाः अपि । तस्य अलब्धिकाः अपि आभिनिबोधिकज्ञानस्य यथा 2. ५. ७. ज्ञानलब्धि की अपेक्षा ज्ञानित्व अज्ञानित्व- पद १४७ भंते! ज्ञानलब्धि वाले जीव क्या ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं ? For Private & Personal Use Only गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। कुछ दो ज्ञान वाले हैं, इस प्रकार यावत् पांच ज्ञान की भजना है। 1 १४८. भंते! उस ज्ञान के अलब्धिक ज्ञानलब्धि से रहित जीव ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम! वे ज्ञानी नहीं हैं. अज्ञानी हैं। कुछ दो अज्ञान वाले हैं, तीन अज्ञान की भजना है। ६. ए पिण मिथ्यादृष्ट, पिण क्षयोपशम भाव ॥ ४२ ॥ अनुयोगद्वार मझार, उदय निष्पन्न रा बोल में। मिथ्यादृष्टि विचार, ए उदयभाव ऊंधी श्रद्धा ॥ ४३ ॥ ए आश्रव मिथ्यात, दर्शन मोह उदय थकी। लद्धि में न कहात, उदय भाव मिथ्यादृष्टि ॥ ४४ ॥ अनुयोगद्वार मझार, क्षय उपशम निष्पन्न विषे। तीन दृष्टि सुविचार, भाव क्षयोपशम शुद्ध श्रद्धा ॥ ४५ ॥ ८. तिण सूं मिथ्यादृष्ट, क्षय उपशम भाव तिका । उज्जल जीव सुइष्ट, लन्द्री में आखी इहां ॥ ४६ ॥ ९. समामिध्यादृष्टभाव क्षयोपशम जिन कही। मिश्र गुणठाणे इष्ट, तसु शुद्ध श्रद्धा जेतली ॥४७॥ १४९. भंते! आभिनिबोधिक ज्ञानलब्धि वाले जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम ! ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। कुछ दो ज्ञान वाले हैं, यावत् चार ज्ञान की भजना है। १५०. भंते! आभिनिबोधिकज्ञान के अलब्धिक जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं ? गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियमतः एक ज्ञान वालेकेवलज्ञान वाले हैं। जो अज्ञानी हैं वे कुछ दो अज्ञान वाले हैं। तीन अज्ञान की भजना है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान लब्धि वाले जीवों की वक्तव्यता । श्रुतज्ञान के अलब्धिक मिथ्याती रे इष्ट सूधी श्रद्धा जेतली । www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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