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________________ भगवई ४९ श. ८ : उ. २ : सू. १४६ १४६. इंदियलद्धी णं भंते! कतिविहा इन्द्रियलब्धिः भदन्त! कतिविधा प्रज्ञप्ता? १४६. भन्ते। इन्द्रियलब्धि कितने प्रकार पण्णत्ता? की प्रज्ञप्त है? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं गौतम! पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- गौतम ! वह पांच प्रकार की प्रज्ञाप्त है, जैसेजहा-सोइंदियलद्धी जाव फासिं- श्रोत्रेन्द्रियलब्धिः यावत् स्पर्शनेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शनेन्द्रियदियलद्धी॥ लब्धिः । लब्धि । भाष्य १.सूत्र १३९-१४६ जयाचार्य ने इस विषय की समीक्षा की है। उनका अभिमत हैलब्धि का अर्थ है कर्म के क्षयोपशम और क्षय से होने वाला। मतिज्ञान और मतिअज्ञान-दोनों का आवरणीय (मलिज्ञानावरणीय) ज्ञान आदि गुणों का लाभ। एक है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान और श्रुत अज्ञान का आवरणीय (श्रुन ज्ञानलब्धि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से होने ज्ञानावरणीय) भी एक है। अवधिज्ञान और विभंगज्ञान का आवरणीय वाला ज्ञान का गुणात्मक विकास। (अवधिज्ञानावरणीय) भी एक है। अज्ञान के तीनों प्रकार ज्ञानावरण दर्शनलब्धि-दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम, उपशम अथवा के क्षयोपशम से निष्पन्न हैं। अनुयोगद्वार इसका साक्ष्य है। उसमें ज्ञान क्षय से होने वाला दर्शन का गुणात्मक विकास। के चार प्रकारों और अज्ञान के तीन प्रकारों को क्षयोपशम निष्पन्न चरित्रलब्धि-चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम, उपशम कहा गया है। अथवा क्षय से होने वाला चरित्र का गुणात्मक विकास। ज्ञान और अज्ञान का विभाग पात्र के आधार पर किया गया है। चरित्राचरित्र लब्धि-अप्रत्याख्यान कषाय मोहनीय कर्म के सम्यग्दृष्टि का बोध ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का बोध अज्ञान कहलाना क्षयोपशम से होने वाला चरित्र का गुणात्मक विकास। है। मिथ्यादर्शन लब्धि और सम्यकदर्शन लब्धि भी क्षयोपशम दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धि-अंतराय कर्म के निष्पन्न है। जयाचार्य ने प्रश्न उपस्थित किया है-विपरीत श्रद्धा को क्षयोपशम और क्षय से होने वाला शक्ति का विकास। लब्धि कैसे कहा जा सकता है? इसका समाधान इस प्रकार इन्द्रिय लब्धि-ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से किया-लब्धि आत्मा की उज्ज्वलता है। विपरीत श्रद्धा मिथ्यात्व है, होने वाला गुणात्मक विकास। आत्मा की मलिनता है। मिथ्यादृष्टि का प्रयोग विपरीत श्रद्धा के अर्थ में ज्ञान लब्धि के साथ अज्ञान लब्धि के तीन प्रकार बतलाए गए विवक्षित नहीं है किन्तु मिथ्यात्व युक्त जीव के जो क्षायोपशमिक दृष्टि हैं-दशविध लब्धि की सूची में अज्ञान लब्धि का पृथक उल्लेख नहीं होती है उस अर्थ में मिथ्यादृष्टि का प्रयोग किया गया है। है किन्तु विस्तार में उसके प्रकारों का उल्लेख किया गया है। अभयदेव सूरि ने मिथ्यादृष्टि का अर्थ किया है-अशुद्ध मिथ्यात्व १. भ. वृ. ८/१३९ तत्र लब्धिः-आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्र कर्मक्षयादितो १०. अवधि विभंग नुं जान, आवरणी तो एक है। नेहनाम पिछाण, अवधि ज्ञानावरणी अछ।।३१।। २. अणु.सू. २८५ तसुक्षय उपशम होय, अवधि विभंग दोन लहै। ३. भ. जो. २१३६/२२.२७-- ए दोनु नो जोय, अवधि दर्शन पिण एक है।॥३२॥ १. ज्ञानावरणी जाण, क्षयोपशम सेती लहै। १२. विभंग ज्ञानावरणीह, क्षय उपमश थी विभंग है। ज्ञान अज्ञान पिछाण, अनुयोगद्वारे आखियो।॥२२॥ पिण एभेद सुलीह, अवधि ज्ञानावरणी नj॥३३॥ २. अज्ञानी रै ताम, सम जाणपणो जेतलो। १३. जाती-समरण पाय, समदृष्टि में मिच्छदिट्ठी। अज्ञान तिण रो नाम, भाजन लारै वाजियो।।२३।। क्षय उपशम जे थाय, मति ज्ञानावरणी तणुं ॥३४॥ जाणे गाय नैं गाय, दिवस भणी जाणे दिवस। १४, ज्ञाता गज भव ईह, जाती-समरण ऊपनों। इत्यादि कहिवाय, जाणपणो सम छै तिको॥२४।। मति ज्ञानावरणीह, क्षयोपशम थी बृनि में॥३५॥ ४. तिण संक्षयोपशम भाव, निरवद्य उज्जल लेखए। १५. समदृष्टी रै सोय, वर मतिज्ञान कह्यो नसु। देख विचारो न्याव. इण कारण लन्द्री कही॥२५॥ मिच्छदिदि रै जोय, मति अज्ञान कही जिये ।।३।। ज्ञानावरणी कर्म, पंच प्रकृति है तेहनी। १६. तिण सुं धुर त्रिहुं ज्ञान, वलि तीनूं अज्ञान ते। जावो एहनो मर्म, मति ज्ञानावरणी प्रमुख ॥२६॥ क्षयोपशम ए जान, लन्द्धी उन्नल जीव ए||३.७।। मति ज्ञानावरणी जह, अयोपशम तेहना थयां। ४. वही, २/१३६ का वार्तिकवर मति ज्ञान लहह, मति अज्ञान पामे बलि।।२७ ।। इहां दर्शन-लन्द्री में जे उदय भाव-ऊंधी श्रद्धा ने लब्धि में किम न ७. श्रुत ज्ञानावरणी जाण, क्षयोपशम तेहनों थयां। लेखवी? उत्तर-ए लब्धि उज्जल जीव छै, निरवद्य छ। अनें ऊंधी श्रद्धा वर श्रुतज्ञान प्रधान, श्रुत अज्ञान लहै वली ॥२८ ।। मिथ्यात आश्रव बिगड्यो जीव छै, सावद्य छै ते माटे। मिथ्यादृष्टि र वा अवधि ज्ञानावरणीह, क्षयोपशम तिण रो थयां। मिश्रदृष्टि रे जेतली शुद्ध श्रन्द्रा क्षयोपशम भावे छै अनें सम्यगदृष्टि रे सर्व शुन्द्र अवधि ज्ञान लन्दीह, विभंग अनाण लहै वली।।२९।। श्रद्धा छै, ते दर्शण लद्धी में लेखवी। नदावरणी कर्म सोय, क्षय उपशम थी विभंग है। सूत्र भगवती जोय, इकतीसम नवमैं अख्यु॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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