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________________ भगवई २७९ श. ९ : उ. ३३ : सू. १५१ आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय-वैनयिक-चरण-करण-यात्रा-मात्रामूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं। भाष्य १.सूत्र-१५० द्रष्टव्य २/५२ का भाष्य। १५१. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः ऋषभदत्तं १५१. 'श्रमण भगवान महावीर ऋषभदत्त उसभदत्तं माहणं सयमेव पव्वावेइ, माहनं स्वयमेव प्रव्राजयति, स्वयमेव ब्राह्मण को स्वयं ही प्रवृजित करते हैं, स्वयं सयमेव मुंडावेइ, सयमेव सेहावेइ, मुण्डयति, स्वयमेव शैक्षयति स्वयमेव ही मुंडित करते हैं, स्वयं ही शैक्ष बनाते हैं, सयमेव सिक्खावेइ, सयमेव आयार- शिक्षयति, स्वयमेव आचार-गोचरं विनय- स्वयं ही शिक्षित करते हैं और स्वयं ही गोयरं विणय-वेणइय-चरण-करण वैनयिक -चरण-करण-यात्रामात्रा-प्रत्ययं आचार-गोचर, विनय-वैनयिक-चरणजायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ- धर्ममाख्याति-एवं देवानुप्रिय! गन्तव्यम्, करण-यात्रा-मात्रा-मूलक धर्म का आख्यान एवं-देवाणुप्पिया गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं स्थातव्यम्, एवं निषत्तव्यम्, एवं करते हैं-देवानुप्रिय! इस प्रकार चलना एवं निसीइयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं त्वकवर्तितव्यम्, एवं भोक्तव्यम्, एवं चाहिए, इस प्रकार ठहरना चाहिए, इस भुजियव्वं, एवं भासियव्वं एवं उट्ठाय- भाषितव्यम् एवं उत्थाय-उत्थाय प्राणेषु प्रकार बैठना चाहिए, इस प्रकार करवट उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवहिं सत्तेहिं भूतेषु जीवेषु सत्वेषु संयमेन संयतितव्यम्. लेनी चाहिए, इस प्रकार भोजन करना संजमेणं संजमियव्वं अस्सिं च णं अटे अस्मिन् च अर्थे न किञ्चिदपि प्रमादित- चाहिए, इस प्रकार बोलना चाहिए, इस णो किंचि वि पमाइयव्वं । प्रकार पूर्ण जागरूकता से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से रहना चाहिए। इस अर्थ में किंचित् भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स ततः सः ऋषभदत्तः माहनः श्रमणस्य वह ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवान् भगवओ महावीरस्स इमं एयारूवं भगवतः महावीरस्य इमम् एतद्रूपं महावीर के इस प्रकार के धार्मिक उपदेश धम्मियं उवएसं सम्म संपडिवज्जइ जाव धार्मिकम् उपदेशं सम्यक् सम्प्रतिपद्यते को सम्यक प्रकार के स्वीकार करता है सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई यावत् सामायिकादिकानि एकादश अंगानि यावत सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहहिं चउत्थ- अधीते, अधीत्य बहुभिः चतुर्थ-षष्ठ- अध्ययन करता है। अध्ययन कर अनेक छट्ठट्ठम-दसम-दुवाल-सेहिं, मासद्ध- अष्टम-दशम- द्वादशैः मासार्द्धमासक्षपणैः चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम भक्त, मासखमणेहिं विचि-त्तेहिं तवोकम्मेहिं विचित्रैः तपः- कर्मभिः आत्मानं भावयन् दशम-भक्त, द्वादश-भक्त, अर्धमास और अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति, मासक्षपण--इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ बहुत मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, जोषति, जोषित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करता झूसेत्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छिनत्ति, छित्वा यस्यार्थं क्रियते नग्नभावः । है। पालन कर एक मास की संलेखना से छेदेत्ता जस्सट्ठाए कीरति नग्गभावे जाव यावत् तमर्थम् आराधयति आराध्य चरमेषु अपने शरीर को कृश बना, अनशन के तमढें आराहेइ, आराहेत्ता चरमेहिं उच्छवास-निश्वासेषु सिद्धः बुद्धः मुक्तः द्वारा साठभक्त (भोजन के समय) का उस्सासनीसासेहिं सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिवृतः सर्वदुःखप्रहीनः । छेदन करता है, छेदन कर जिस प्रयोजन से परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे॥ नग्नभाव यावत् उस प्रयोजन की आराधना करता है। उसकी आराधना कर चरम उच्छ्वास-निःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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