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भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. १५०
२७८ इच्छियमेयं भंते! पडि-च्छियमेयं भंते! भदन्त ! इष्टमेतद् भदन्त ! प्रतीष्टमेतद् इच्छिय-पडि-च्छियमेयं भंते! से जहेयं भदन्त! इष्टप्रतीष्ट-मेतद् भदन्त! तद् यथेदं तुब्भे वदह त्ति कट्ट उत्तरपुरत्थिमं यूयं वदथ इति कृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिसिभागं अवक्कमति, अवक्क-मित्ता दिग्भागम् अपक्रामति, अपक्राम्य स्वयमेव सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, आभरणमाल्यालंकारम् अवमुञ्चति, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे करोति, कृत्वा यत्रैव श्रमणः भगवान् तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आया-हिण- श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद्-आदीप्त: णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, भदन्त ! लोकः, प्रदीप्तः भदन्त ! लोकः, आलित्त-पलित्ते णं भंते! लोए जराए आदीस-प्रदीप्तः भदन्त! लोकः जरसा मरणेण य।
मरणेन च। अथ यथानामकः कश्चिद् से जहानामाए केइ गाहावई अगारंसि गाहावई अगारे ध्मायमाने यः सः तत्र झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ । भाण्डः भवति अल्पभारः मूल्यगुरुकः तं अप्पभारे मोल्लगरुए, तं गहाय आयाए गृहीत्वा आत्मना एकान्तमन्तम् एगंतमंतं अवक्क-मइ। एस मे नित्थारिए अपक्रामति। एष मम निस्तारितः सन् समाणे पच्छा पुरा य हियाए सुहाए पश्चात् पुरा च हिताय सुखाय क्षमाय खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय भविष्यति। भविस्सइ।
एवमेव देवानुप्रिय! ममापि आत्मा एकः एवामेव देवाणुप्पिया! मज्झ वि आया भाण्डः इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः मणामे एगे भंडे इढे कंते पिए मणुण्णे मणामे । स्थेयान् वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः थेज्जे वेस्सासिए सम्मए बहुमए अणुमए अनुमतः भाण्डकरण्डकसमानः, मा शीतं, भंडकरंडगसमाणे, मा णं सीयं, मा णं । मा उष्णं, मा क्षुधा, मा पिपासा, मा चौराः, उण्ह, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं मा व्यालाः, मा दंशाः, मा मशकाः, मा चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं वाातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिक-सान्निपातिकाः मसया, मा णं वाइय-पित्तिय- विविधाः रोगांतकाः परीषहोपसर्गाः सेंभियसन्निवाइय विविहा रोगायंका स्पृशन्तु इति कृत्वा एषः मम निस्तारितः परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कट्ट एस मे सन् परलोकस्य हिताय, सुखाय, क्षमाय नित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय भविष्यति तद् सुहाए खमाए नीसेसाए आणुगामियत्ताए इच्छामि देवानुप्रिय! स्वयमेव प्रव्राजितं भविस्सइ।
स्वयमेव मुण्डितं, स्वयमेव शैक्षापितं, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सयमेव स्वयमेव शिक्षापितं स्वयमेव आचार-गोचरं पव्वावियं सयमेव मुंडावियं, सयमेव विनय-वैनयिक-चरण-करण-यात्रामात्रासेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सयमेव प्रत्ययं धर्ममाख्यातम्। आयारगोयरं विणय-वेणइय-चरणकरण - जायामाया . वत्तियं धम्ममाइक्खियं।
है, भंते! यह तथा (संवादितापूर्ण) है, भंते! यह अवितथ है, भंते! यह असंदिग्ध है, भंते! यह इष्ट है, भंते! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है और भंते! यह इष्टप्रतीप्सित हैजैसा आप कह रहे हैं ऐसा भाव प्रदर्शित कर वह उत्तर पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) की ओर जाता है, जाकर स्वयं ही आभरण अलंकार उतारता है, उतार कर स्वयं ही पंचमुष्टि लोच करता है, लोच कर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आता है, आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर बंदन-नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है) भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त-प्रदीप्त हो रहा है। जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग जाने पर वह वहां जो अल्पभार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाता है। (और सोचता है)-अग्नि से निकाला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। देवानुप्रिय! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक उपकरण है। वह इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के समान है। इसे सर्दी-गर्मी न लगे, भूखप्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, हिंस्र पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश और मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात-जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक, परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करे, इस अभिसंधि से मैंने इसे पाला है। मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा, इसलिए देवानुप्रिय! मैं आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं, मैं
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