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भगवई
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श.९ : उ. ३३ : सू. १५०
अतिशय बल-अतिशय बल वाला।' महाबल-प्रशस्त बल वाला।' अपरिमित बल-असीम बल वाला।'
अभयदेव सूरि ने बल का अर्थ शारीरिक प्राण और वीर्य का अर्थ जीव से उत्पन्न शक्ति किया है। प्रथम शतक में बतलाया गया है-वार्य शरीर से उत्पन्न होता है। इन दोनों भिन्न वक्तव्यों का नय दृष्टि से समाधान किया जा सकता है। वीर्य के दो प्रकार हैं-लब्धिवीर्य और करणवीर्य। लब्धिवीर्य अन्तराय कर्म का क्षायोपशमिक भाव है, वह जीव से उत्पन्न शक्ति है। करणवीर्य शरीर नामकर्म का औदयिक भाव है, वह शरीर से उत्पन्न शक्ति है।
तेज-दीप्ति। माहात्म्य-महानता। कांति-कमनीयता।
शारदनवस्तनित-प्रस्तुत आलापक में भगवान महावीर की धर्म देशना का निरूपण है। उसमें स्वर, सरस्वती, भाषा--इन तीन तत्त्वों का प्रतिपादन है। भगवान का स्वर शरद् ऋतु के मेघ, कोंच के निर्घोष और दुन्दुभि के स्वर के समान मधुर और गंभीर था।
उनकी वाणी (सरस्वती) वक्ष में विस्तृत, कंठ में वर्तुल और मूर्धा-मुख के भीतर का तालु और कंठ के बीच का वह भाग जो मस्तक या शीर्षस्थान के ठीक नीचे पड़ता है और जहां से मूर्धन्य वर्गों का उच्चारण होता है-में संकीर्ण थी।
संस्कृत व्याकरण में वर्गों के स्थान और आस्य-प्रयत्न बतलाए
से प्रयत्न-प्रेरित प्राण नाम का वायु ऊपर की ओर जाता है। बह उर आदि स्थानों में से किसी स्थान पर चोट करता है. उससे ध्वनि उत्पन्न होती है।
संगीतसमयसार में स्वर आदि की उत्पत्ति के संक्षेप में तीन ही स्थान बतलाए गए हैं-हृदय, कंठ और सिर।
प्रतीत होता है-सूत्रकार ने संगीत विधि का उपयोग कर इन तीन स्थानों का निर्देश किया है।
वृत्तिकार ने वक्ष को विस्तीर्ण, कंठ विवर को वर्तुल और मूर्धा को संकीर्ण बतलाया है।"
अगरल-सुविभक्त अक्षरवाली। अमम्मणा स्पष्ट उच्चारण वाली।
सुव्वत्तक्खरसण्णिवाइया-सुव्यक्त अक्षर सन्निपात (वर्ण संयोग) वाली।
पुण्णा-पूर्णा, स्वर कला से पूर्ण रत्ता-गेय राग से अनुरक्त।
सर्वभाषानुगामिनी-औपपातिक में बतलाया गया है कि तीर्थंकर की वाणी अनेक भाषाओं में परिणत हो जाती है।"
आवश्यक नियुक्ति और चूर्णि के अनुसार तीर्थकर की वाणी को सुनने वाले सब लोग अपनी-अपनी भाषा में सुनते-समझते हैं। इस आशय का एक संस्कृत श्लोक प्रसिद्ध है
देवा देवी नरा नारी शबराश्चापि शाबरीम। तिर्यंचोऽपि हि तैरिश्चिं भेदिरे भगवदगिरम ।
जोयण नीहारिणा तीर्थंकर की वाणी एक योजन तक सुनाई देती है। यह ज्योतिष अतिशयों में से एक अतिशय है।
इस प्रसंग में ध्वनि की उत्पनि बतलाई गई है। नाभिप्रदेश
१५०. तए णं से उसभदत्ते माहणे ततः सः ऋषभदत्तः माहनः श्रमणस्य १५०. ऋषभदन ब्राह्मण श्रमण भगवान समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्टे उठाए निशम्य हृष्टतुष्टः उत्थया उत्तिष्ठति, कर हृष्ट-तुष्ट होकर उठने की मुद्रा में उद्वेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीर उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः उठता है, उठकर श्रमण भगवान महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रदक्षिणा करता है. प्रदक्षिणा कर वंदनएवं वदासी-एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! एवमवादीत्-एवमेतद् भदन्त! तथैतद् नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर
अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! भदन्त ! अवितथमेद भदन्त ! असंदिग्धमेतद् वह इस प्रकार बोला-भंते! यह ऐसा ही १. वही. प. १४७- अइबल ति अनिशय बलः ।
स्थानाभिवानाद ध्वनिरुत्पद्यने आकाशे. सा वर्णश्रुति, स वर्णरयात्मलाभः । २. वही. प.१४०-महब्बलेनि प्रशस्तबलः।
०.. संगीतसार १२.१० ३. वहीं, प. १४०-अपरिमितानि अनंतानि यानि बलादीनि।
स्वरादीनां उत्पनिहत्त्वात् स्थानम। 2. औप. वृ. प.१४१-बल-शरीरः प्राण: वीर्य जीवप्रभवं।
श्रीणि स्थानानि हत्कंठशिरांसीति समासतः ।। ५. भ. ११४४
१०. ऑप. व. प. १४०-उरे वित्थडाए-उरसि विस्ततया उरसो विस्तीर्णत्वात. ६.भ.१३०६-३८२ का भाष्य।
सरस्वत्येति योगः 'कंठेश्वट्टियाए गलविवरस्य बनन्वात् , 'सिरे हेम प्रकाश महाव्याकरण, पूर्वाधं, गाथा २१,२५
समाइण्णाः मूर्ध्नि संकीर्णया आयामस्य मूर्ना स्युलितत्वात। अष्टी स्थनानि वर्णानामरः कण्ठः शिरस्तथा।
११. ओव, सू.७१-सावियणं अन्दमागहा भासा तेसि सव्यसि आरियमणारिया जिहा मूलं च दंताश्च. नासिकाष्टी च नाल च।
णं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमड। आरय प्रयत्नाः स्पृष्टाद्याः विवाराद्यास्तु बाह्यकाः ।।
१२. श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ.-३०४ ८. हेम प्रकाश व्याकरण, पूर्वार्ध, गाथा २५ की वृत्ति-नाभि-प्रदेशात- १३. अभिधान चिन्तामणिः १/५८-५२.प्रयत्नप्रेरितः प्राणो नाम वायुरूद्धमाकामन उर:प्रभृतीनां स्थानानामन्यन
क्षेत्र स्थिनिर्योजनमात्रके पि. नृदेवतिर्यगजनकोटिकाटेः। मस्मिन स्थाने प्रयत्नेन विधार्यते स विधार्यमाणः स्थानमभिहन्ति, नस्मात्
वाणी नृनिर्यकसुरलोकभाषा, संवादिनी योजनगामिनी च।।
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