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श. ९ : उ. ३३ : सू. १४९
१४९. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिप रिसाए मुणिपरिसाए जइप - रिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयवंदाए अणेगसयवंदपरियालाए ओहबले अइबले महब्बले अपरिमियबलवीरियतेय माहप्प कंति - जुत्ते सारयनवत्थणिय महुरगंभीर कोंचणिघोस- दुंदुभिस्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइण्णाए अगरलाए अमम्मणाए सुव्वत्तक्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिणा सरेणं अर्द्धमागहाए भासाए भासइ-धम्मं परि कहेइ जाव परिसा पडिगया ।
२. सू० १/१६.१
३. (क) म. वृ. ९ १४९ ।
१. सूत्र - १४९
प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर की परिषद् का वर्णन किया गया है। उस परिषद् के चार विभागों का उल्लेख है
१. महर्षि परिषद् २. मुनि परिषद् ३. यति परिषद् ४. देव परिषद् । प्रत्येक परिषद् में अनेक सैकड़ों, अनेक सैकड़ों के वृन्द तथा अनेक सैकड़ों के वृन्द रूपी परिवार विद्यमान थे।
सूत्रकृतांग में मुनि के लिए श्रमण, माहण, भिक्षु और निर्ग्रथ-इन चार शब्दों का प्रयोग किया गया है। उनमें ऋषि, मुनि और यति का प्रयोग नहीं है।
(ख) औप. वृ. प. १४६,१४७।
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ततः श्रमणः भगवान् महावीरः ऋषभदत्तस्य माहनस्य देवानंदायाः महान्याः तस्यां च महामहत्याम् ऋषिपरिषदि यतिपरिषदि
अभयदेव सूरि ने ऋषि का अर्थ द्रष्टा किया है। यास्क - निरुक्त में भी ऋषि का अर्थ द्रष्टा किया गया है।" सूत्रकृतांग में भगवान १. औप. वृ. प. १४७- अणेगसयवंदाए त्ति अनेकानि शत प्रमाणानि वृन्दानि यस्यां सा तथा तस्याः अणेगसयबंदपरियालाए अनेन शतमानानि यानि वृन्दानि तानि परिवारो यस्याः सा तथा तस्याः ।
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५. सू. १/६/२२॥
अनेकशतायाम् अनेकशतवृन्दायाम् अनेकशतवृन्दपरिवारे ओघबलः अतिबलः महाबलः अपरिमितिबल-वीर्य तेजसमाहात्म्य - कान्तियुक्तः शारद-नवस्तनितमधुरगम्भीर - क्रौञ्चनिर्घोष- दुन्दुभिस्वरः उरसिविस्तृतया कण्ठे वर्तितया शिरसि समाकीर्णया अगरलया अमन्मनया सुव्यक्ताक्षरया - सन्निपातिकया पूर्णरक्तया सर्वभाषानुगामिन्या सरस्वत्या योजन निर्धारिणा स्वरेण मागध्यां भाषायां भाषतेधर्मं परिकथयति यावत् परिषद् प्रतिगता ।
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भाष्य
भगवई
१४९. श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानंदा ब्राह्मणी को उस विशाल परिषद् में धर्म का प्रतिबोध दिया, जिस परिषद् में ऋषि परिषद्, मुनि परिषद्, यति परिषद् और देवपरिषद् का समावेश है। उन परिषदों में सैकड़ों सैकड़ों मनुष्यों के समूह बैठे हुए थे। भगवान महावीर का बल ओघबल, अतिबल और महाबल-इन तीन रूपों में प्रकट हो रहा था। वे अपरिमित बल, वीर्य, तेज, माहात्म्य और कांति से युक्त थे। उनका स्वर शरद ऋतु के मेघ के नव गर्जन, क्रौंच के निर्घोष तथा दुंदुभि की ध्वनि के समान मधुर और गंभीर था। धर्म कथन के समय भगवान की वाणी वक्ष में विस्तृत, कंठ में वर्तुल और सिर में संकीर्ण होती थी। वह गुनगुनाहट और अस्पष्टता से रहित थी। उसमें अक्षर का सन्निपात स्पष्ट था। वह स्वर- कला से पूर्ण और ज्ञेय राग से अनुरक्त थी। वह सर्व भाषानुगामिनी - स्वतः ही सब भाषाओं में अनुदित हो जाती थी। भगवान एक योजन तक सुनाई देने वाले स्वर में अर्द्धमागधी भाषा में बोले । प्रवचन के पश्चात् परिषद् लौट गई।
महावीर को ऋषियों में श्रेष्ठ कहा गया है। उत्तराध्ययन में भी ऋषि शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है ।"
मुनि शब्द बहुत बार प्रयुक्त है। इसका अर्थ है ज्ञानी- नाणेण य मुणी हो ।' अभयदेवसूरि ने मुनि का अर्थ वाचंयम किया है । " अभयदेव सूरि ने यति का अर्थ धर्म क्रिया में प्रयतमान किया है। यति शब्द यम धातु से निष्पन्न है इसलिए इसका अर्थ संयमी होना चाहिए। ओघ बल आदि पद-समूह भगवान महावीर के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है।
ओघबल - ओघ का एक अर्थ है अविच्छेद। जिसका बल प्रवाह रूप में अविच्छिन्न रहता है, वह व्यक्ति ओघबल कहलाता है। अभयदेवसूरि ने ओघबल का अर्थ अव्यवच्छिन्न बल किया है। " ६. उत्तर. १२/४४, ४७।
७. उत्तर. २५/३० /
८. (क) भ. वृ. ९ / ९४९ - मुनयो वाचंयमाः ।
(ख) औप. वृ. प. १४० मौनवत्साधूनां वाचंयमसाधूनामित्यर्थः ।
९. (क) भ. वृ. ९/१४९ - यतयस्तु धर्मक्रियासु प्रयतमानाः ।
(ख) औप वृ. प. १४७ यतन्ते चारित्रं प्रति प्रयता भवन्तीति यतयः । १०. वही. प. १४७- ओहबले ति अव्यवच्छिन्न बलः
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