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भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. १४७,१४८ १४७. तए णं सा देवाणंदा माहणी ततः सा देवानन्दा माहनी आगतप्रस्नया १४७. उस समय देवानंदा ब्राह्मणी के स्तनों आगयपण्हया पप्पुयलोयणा संवरिय- प्रप्लुतलोचना संवृतवलयबाहा कञ्चुक- से दूध की धार बह चली और नेत्र जल वलयबाहा कंचुयपरिक्खित्तिया धारा- परिक्षिप्सका धाराहतकदम्बकम् इव से भीग गए। हर्षातिरेक से स्थूल होती यकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा समुच्छ्रितरोमकूपा श्रमणं भगवन्तं अनिमि- हुई भुजा के लिए बाजूबंध अवरोध बन समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए षया दृष्ट्या पश्यन्ती-पश्यन्ती तिष्ठति। गए, कंचुकी विस्तृत हो गई, मेघ की दिट्ठीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ॥
धारा से आहत कदम्बपुष्प की भांति रोमकूप समुच्छवसित हो गए। वह श्रमण भगवान महावीर को अनिमेष दृष्टि से देख रही है।
१४८. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त ! अयि! भगवान् गौतमः श्रमणं १४८. भंते! यह कहकर भगवान गौतम ने महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा श्रमण भगवान महावीर को वंदनएवं वयासी-किं णं भंते! एसा देवाणंदा नमस्यित्वा एवम् अवादीत्-किं भदन्त! एषा नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर वे माहणी आगयपण्हया पप्पुयलोयणा । देवानन्दा माहनी आगतप्रस्नया प्रप्लुत- इस प्रकार बोले-भंते! क्या देवानंदा संव-रियवलयबाहा कंचुयपरिक्खि. लोचना संवृतवलयबाहा कञ्चुक- ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की धार बह त्तिया धाराहयकलंबगं पिव समूसविय- परिक्षिप्तिका धाराहतकदम्बकम् इव चली? नेत्र जल से भीग गए? हर्षातिरेक रोमकूवा देवाणुप्पियं अणिमिसाए समुच्छ्रितरोमकूपा देवानुप्रियं अनिमिषया से स्थूल होती हुई भुजा के लिए बाजूबंध दिट्ठीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ? दृष्ट्या पश्यन्ती पश्यन्ती तिष्ठति? अवरोध बन गए? कंचुकी विस्तृत हो
गई? मेघ की धारा से आहत कदम्बपुष्प की भांति रोमकूप उच्छवसित हो गए? वह देवानुप्रिय को अनिमेष दृष्टि से देख
रही है? गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं अयि गौतमः! श्रमणः भगवान महावीरः हे गौतम! श्रमण भगवान महावीर ने गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! श्रमणं भगवन्तं एवं अवादीत्-एवं खलु भगवान गौतम से इस प्रकार कहादेवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहण्णं गौतमदेवानन्दा माहनी मम अम्बा, अहं । गौतम! देवानंदा ब्राह्मणी मेरी माता है, मैं देवाणंदाए माह-णीए अत्तए। तण्णं एसा देवानन्दायाः माहन्याः आत्मजः। 'तत् एषा' देवानंदा ब्राह्मणी का आत्मज हूं। इसलिए देवाणंदा माहणी तेणं पुव्वपुत्त- देवानंदा माहनी तेन पूर्वपुत्रस्नेहरागेन उस पूर्व पुत्र-स्नेह राग के कारण सिणेहरागेणं आगयपण्हया पप्पुय. आगतप्रस्नया प्रप्लुतलोचना संवृत देवानंदा ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की लोयणा, संवरियवलयबाहा कंचुय- बलयबाहा कञ्चुकपरिक्षिप्तिका धाराहत- धार बह चली। नेत्र जल से भींग गए। परिक्खित्तिया धाराहयकलंबगं पिव कदम्बकम् इव समुच्छितरोमकूपा मम हर्षातिरेक से स्थूल होती हुई भुजा के समूसविय-रोमकूवा ममं अणिमिसाए अनिमिषया दृष्ट्या पश्यन्ती पश्यन्ती लिए बाजूबंध अवरोध बन गए, कंचुकी दिट्ठए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ॥ तिष्ठति।
विस्तृत हो गई। मेघ की धारा से आहत कदम्ब पुष्प की भांति रोमकूप उच्छवसित हो गए। वह मुझे अनिमेष दृष्टि से देख रही है।
भाष्य
१.सू. १४८
१. आत्मज हूं.......पूर्वपुत्र स्नेह राग के कारण अत्तयं.... पुव्वपुत्तसिणेहरागेणं भगवान महावीर बता रहे हैं-मैं देवानंदा का आत्मज हूं। पूर्व
पुत्र-स्नेह राग के कारण यह पाठ इस घटना का सूचक है-मेरा प्रथम गर्भाधान देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में हुआ था। गर्भ-संहरण के पश्चात् त्रिशला मेरी माता बनी।'
१. भ. वृ. ९/१४८-अत्तानि आत्मजः पुत्रः पुव्वपुनसिणेहाणुराएणं ति पूर्वः-प्रथमगर्भाधानकालसंभवो यः पुत्रस्नेहलक्षणोनुरागः स पूर्वपत्रस्नेहानुरागस्नेन।
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