________________
भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. १४५,१४६ माहणकुंडग्गामं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए पासइ, पासित्ता धम्मियं जाण-प्पवरं ठवेइ, ठवेत्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरु-हित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभि- गच्छति, (तं जहा-१. सच्चित्ता णं दव्वाणं विओसरणयाए २. अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरण-याए ३. एगसाडिएणं उत्तरासंग-करणेणं ४. चक्खुप्फासे अंजलि-प्पगहेणं ५. मणसो एगत्ती-करणेणं) जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ॥
२७४ नगरं मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव बहुशालके चैत्ये तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य छत्रादीन् तीर्थंकरातिशयान् पश्यति, दृष्ट्वा धार्मिक यानप्रवरं स्थापयति, स्थापयित्वा धार्मिकात् यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं पञ्चविधेन अभिगमेन अभिगच्छति (तद् यथा-१. सचित्तानां द्रव्याणां व्युत्सर्जनेन २. अचित्तानां द्रव्याणां अव्युत्सर्जनेन ३. एकशाटिकेन उत्तरासंगकरणेण ४. चक्षुस्स्पर्श अञ्जलिप्रग्रहेण ५. मनसः एकत्वीकरणेण) यत्रैव श्रमणं भगवन्तं महावीरं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपास्ते।
निर्गमन करते हैं। निर्गमन कर जहां बहुशालक चैत्य है वहां आते हैं, वहां आकर तीर्थंकर के छत्र आदि अतिशयों को देखते हैं। देखकर धार्मिक यानप्रवर को स्थापित करते हैं, स्थापित कर धार्मिक यानप्रवर से उतरते हैं। उतरकर पांच प्रकार के अभिगमों से श्रमण भगवान महावीर के पास जाते हैं, (जैसे-१. सचित्त द्रव्यों को छोड़ना २. अचित्त द्रव्यों को छोड़ना ३. एक शाटक वाला उत्तरासंग करना ४. दृष्टिपात होते ही बद्धांजलि होना ५. मन को एकाग्र करना) जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आते हैं। वहां आकर दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार करते हैं, वंदन-नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करते हैं।
भाष्य
१. सूत्र-१४५
अभिगम के लिए द्रष्टव्य भगवती २/९७ का भाष्य।
१४६. तए णं सा देवाणंदा माहणी ततः सा देवानंदा माहनी धार्मिकात् धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चो- यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य बहुभिः रुहति पच्चोरुहित्ता बहहिं खुज्जाहिं कब्जाभिः यावत् चेटिकाचक्रवाल-वर्षधर- जाव चेडियाचक्कवाल-वरिसधर- स्थविरकंचुकीय-महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता थेरकंचइज्ज - महत्तरगवंदपरि-क्खित्ता श्रमण भगवन्तं महावीरं पञ्चविधेन अभिसमणं भगवं महावीरं पंचविहेणं गमेन अभिगच्छति (तद्यथा-१.सचित्तानां अभिगमेणं अभिगच्छइ, (तं जहा-१.
द्रव्याणां व्युत्सर्जनन २. अचित्तानां सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए २.
द्रव्याणाम् अव्युत्सर्जनेन ३. विनयावनतया अचित्ताणं दव्वाणं अविमोयणयाए ३.
गात्रयष्ट्या ४. चक्षुःस्पर्श अञ्जलिप्रग्रहेण विण-योणयाए गायलट्ठीए ४. चक्खु
५. मनसः एकत्वीभावकरणेण) यत्रैव प्फासे अंजलिपग्गहेणं ५. मणस्स
श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागएगत्तीभावकरणेणं) जेणेव समणे भगवं
च्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं महावीरे तेणेव उवागच्छइ,
त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर
वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ,
ऋषभदत्तं माहनं पुरतः कृत्वा स्थिता चैव करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता
सपरिवारा शुश्रूषमाना नमस्यती अभिमुखा उसभदत्तं माहणं पुरओ कट्ट ठिया चेव
विनयेन प्राञ्जलिकता पर्युपासते। सपरिवारा सुस्सू-समाणी नमसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिकडा पन्जुवासइ॥
१४६. देवानंदा ब्राह्मणी धार्मिक यानप्रवर से उतरती है। उतरकर बहुत कुब्जा , यावत् चेटिकासमूह, वर्षधर, स्थविर, कंचुकीजनों, महत्तरक गण के वृन्द से घिरी हुई पांच प्रकार के अभिगमों से श्रमण भगवान् महावीर के पास जाती है। (जैसे-१. सचित्त द्रव्यों को छोड़ना २. अचित्त द्रव्यों को छोड़ना ३. शरीरयष्टि को विनयावनत करना ४. दृष्टिपात होते ही बद्धांजलि होना ५. मन को एकाग्र करना) जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आती है। आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करती है। प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार करती है, वंदननमस्कार कर ऋषभदत्त ब्राह्मण को आगे कर, स्थित हो परिवार सहित शुश्रूषा और नमस्कार करती हुई सम्मुख रहकर विनयपूर्वक बद्धांजलि पर्युपासना कर रही है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org