SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई २७३ १४२. तए णं ते कोडुबियपुरिसा उसभ- ततः कौटुम्बिकपुरुषाः ऋषभदत्तेन माहनेन दत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणा एवम् उक्ता सन्तः हृष्टतुष्टचित्ताः आन- हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया शंदिया पीइमणा न्दिताः नन्दिताः प्रीतिमानसः परमसौमनपरमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्प- स्थिताः हर्षवशविसर्पमान-हृदयाः करमाणहियया करयलपरिग्गहियं दसनहं तलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं अञ्जलिं कृत्वा एवं स्वामिन्! तथेति आज्ञया सामी! तहत्ताणाए विणएणं वयणं विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य, पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता खिप्पामेव क्षिप्रमेव लघुकरणयुक्तं यावत् धार्मिक लहुकरणजुत्त जाव धम्मियं जाणप्पवरं यानप्रवरं युक्तमेव उपस्थाप्य तम् जुत्तामेव उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं आज्ञाप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति। पच्चप्पिणंति॥ श. ९ : उ. ३३ : सू. १४२-१४५ १४२. वे कौटुम्बिक पुरुष ऋषभदत्त ब्राह्मण के यह कहने पर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाले, परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले हो गए। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर 'स्वामी! आपकी आज्ञा के अनुसार ऐसा ही होगा', यह कहकर विनयपूर्वक वचन को स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर शीघ्र गतिक्रिया की दक्षता से युक्त यावत् धार्मिक यानप्रवर को शीघ्र उपस्थित कर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित करते हैं। १४३. तए णं से उसभदत्ते माहणे ण्हाए ततः सः ऋषभदत्तः माहनः स्नातः यावत् १४३. ऋषभदत्त ब्राह्मण ने स्नान यावत् जाव अप्पमहग्याभरणालं-कियसरीरे अल्पमहाभिरणालंकृतशरीरः स्वस्मात् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों साओ गिहाओ पडिणिक्खमति, पडि- गृहात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव से शरीर को अलंकृत किया। (इस प्रकार णिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण- बाहिरिका उपस्थानशाला यत्रैव धार्मिकः सज्जित होकर) अपने घर से निकले. घर साला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव यानप्रवरः तत्रैव उपागच्छति उपागत्य से निकलकर जहां बाहरी उपस्थानशाला उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं धार्मिकं यानप्रवरम् आरूढः। है, जहां धार्मिक यानप्रवर है वहां आए। जाणप्पवरं दुख्ढे॥ वहां आकर धार्मिक यानप्रवर पर आरूढ़ हो गए। १४४. तए णं सा देवाणंदा माहणी ण्हाया ततः सा देवानन्दा माहनी स्नाता यावत् १४४. 'देवानंदा ब्राह्मणी ने स्नान यावत् जाव अप्पमहग्घाभरणालं-कियसरीरा अल्पमहाभिरणालंकृतशरीरा बहुभिः ___ अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों बहूहिं खुज्जाहिं, चिलातियाहिं जाव कुब्जाभिः किरातिकाभिः यावत् चेटिका- से शरीर को अलंकृत किया। बहुत चेडियाचक्कवाल - वरिसधर - थेर - चक्रवाल-वर्षधर-स्थविरकञ्चकीय-महत्तरक- कुब्जा, किरात देशवासिनी यावत् चेटिका कंचुइज्ज . महत्तरगवंदपरिक्खित्ता वृन्दपरिक्षिप्ता। अन्तःपुरात् निर्गच्छति, समूह, वर्षधर (कृतनपुंसकपुरुष) स्थविर, अंतेउराओ निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता निर्गत्य यत्रैव बाहिरिका उपस्थानशाला कंचुकी जनों, प्रतिहार गण और महत्तरक जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव यत्रैव धार्मिकः यानप्रवरः तत्रैव गण के वृन्द से घिरी हुई अन्तःपुर से धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानप्रवरम् निकली। निकलकर जहां बाहरी उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवर आरूढा। उपस्थानशाला है, जहां धार्मिक यानप्रवर दुरुढा॥ है, वहां आई। वहां आकर धार्मिक यानप्रवर पर आरूढ़ हो गई। भाष्य १. सूत्र-१४४ शब्द-विमर्श वषहर-अन्तःपुर का रक्षक। घेरकंचुइ-अंतःपुर के प्रयोजन का निवेदन करने वाला, प्रतिहारी। महत्तरग-अन्तःपुर के कार्य का चिंतन करने वाला। १४५. तए णं से उसभदत्ते माहणे देवाणं- ततः सः ऋषभदत्तः माहनः देवानन्दया १४५. 'ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानंदा ब्राह्मणी दाए माहणीए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं माहन्या सार्धं धार्मिक यानप्रवरं आरूढः सन् के साथ अपने परिवार से परिवृत होकर दुरुढे समाणे नियग-परियालसंपरिखुडे निजकपरिवारसंपरिवृतः माहनकुण्डग्रामं ब्राह्मणकुंडग्राम नगर के बीचोबीच For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy