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श. ९ : उ. ३३ : सू. १४०,१४१
परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाहिया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु उसभदत्तस्स माहणस्स एयम विणणं पडि - सुणेइ ॥
१४९. तए णं से उसभदत्ते माहणे कोडुंबियपुरिसे सहावेs, सद्दावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणु - प्पिया ! लहुकरणजुत्त- जोइय-सम खुवालिहाण - समलिहियसिंगेहिं, जंबूणयामयकलावजुत्तपतिविसिद्धेहिं, रययामयघंटासुत्तरज्जुयपवर कंचणनत्थपग्गहोग्गाहियएहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं, पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिरयणघंटियाजालपरिगयं, सुजायजुग-जोत्त रज्जुयजुग पसत्थसुविर - चियनिमियं पवरलक्खणोववेयं धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एत-माणत्तियं पच्चप्पिणह ।।
१. सूत्र - १४१ शब्द-विमर्श
• खुर-खुर
बलियाण- पूंछ ।
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नस्थिता हर्षवशविसर्पद्मानहृदया करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा ऋषभदत्तस्य माहनस्य एतमर्थं विनयेन प्रतिशृणोति ।
बहुकरण जुत्त जोइय-यह पाठ भगवती और ज्ञातधर्मकथा' में सदृश है। अभयदेवसूरि ने भगवती वृत्ति में लहुकरण जुत्त का अर्थ शीघ्र क्रिया करने में दक्षता से युक्त तथा जोइय का अर्थ यौगिक-प्रशस्त योग वाला किया है। ज्ञातधर्मकथा की वृत्ति में उन्होंने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है - लघुकरण युक्त-शीघ्र क्रिया करने में दक्षता से युक्त पुरुष के द्वारा योजित यानप्रवर-यंत्र यूप आदि से व्यवस्थित। * यह प्रवरगोणजुवाणय का विशेषण है इसलिए प्रसंग के आधार पर इसका अर्थ- शीघ्र गति क्रिया की दक्षता से युक्त होने के कारण वे रथ में जोते गए हैं-होना चाहिए।
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प्रवरकाञ्चन
ततः सः ऋषभदत्तः माहनः कौटुम्बिक - पुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवममादीत्क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! लघुकरणयुक्तयौगिक- समखुरबालधान-समलिखितशृङ्गैः जाम्बूनदमय-कलापयुक्त प्रतिविशिष्टैः रजतमयघण्टा - सूत्ररज्जुक 'नत्था' प्रग्रहगुहीतैः नीलोत्पलकृत 'आमेलएहिं' प्रवरगोयुवभिः नानामणिरत्नघण्टिकाजाल - परिगतं सुजातयुग-योक्त्ररज्जुकयुग प्रशस्तसुविरचितनिर्मितं प्रवरलक्षणोपपेतं धार्मिक यानप्रवरं युक्तमेव उपस्थपयत, उपस्थाप्य माम् एतामाझसिकां प्रत्यर्पयत ।
भाष्य
१. नाया. १ / ३ / १०, १८ / ५२ ।
२. भ. वृ. ९ / १४१ -लघुकरणं- शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्तौ योगिको च प्रशस्तयोगवन्नी प्रशस्तसदृशरूपत्वाद्यौ तौ तथा ।
भगवई
परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गई। वह दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर ऋषभदत्त ब्राह्मण के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार करती है।
• सम लिहियसिंग - शस्त्र के द्वारा बाहर की चमड़ी का अपनयन किया गया है।
१४१. ऋषभदत्त ब्राह्मण ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र गति - क्रिया की दक्षता से युक्त, समान खुर और पूंछ वाले, समान रूप से उल्लिखित सींग वाले, स्वर्णमय कलाप से युक्त, प्रतिविशिष्ट-प्रधान रजतमय घण्टा वाले, धागे की डोरी तथा प्रवर कंचनमय नथिनी की डोरी से बंधे हुए, नील उत्पल के सेहरे वाले, प्रवर तरुण बैल जिसमें जोते गए हैं, जिस पर नाना मणि, रत्न और घंटिका जाल वाली झूल डाली हुई है, श्रेष्ठ काठ की जुआ और जोत (जूए को बैल की गर्दन से जोतने वाली रस्सी) रज्जुयुग्म प्रशस्त, सुविरचित और निर्मित है, प्रवर लक्षण से उपेत है वैसे धार्मिक यानप्रवर को तैयार कर शीघ्र उपस्थित करो। उपस्थित कर मेरी इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो।
• जंबूनदमय कलाप - स्वर्णमय कलाप, कण्ठाभरण । • पइविसिट्ठ-प्रधान ।
• रयणमय घंटा-चांदी का घंटा।
• पग्गह-लगाम
• ओग्गहिय-बद्ध
• सुत्त रज्जुय - रूई से बनी हुई डोरी ।
• नत्थ - नासिका रज्जु
• आसेलय- सेहरा
• घंटिया जाल - घंटिका युक्त जाल
• जुग-जूआ
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३. ज्ञाता वृ. प. ९९- लघुकरणं गमनादिका शीघ्रक्रियार्थः दक्षत्वमित्यर्थः तेन युक्ताः ये पुरुषास्तैर्यो ।
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