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भगवई
श.९: उ. ३३ : सू. १३८-१४०
उल्लिखित किया जाता है।
प्रस्तुत प्रकरण में संभावना की जा सकती है कि ऋषभदत्त पहले ब्राह्मण परंपरा का अनुयायी था फिर वह श्रमण परंपरा का
अनुगामी बना।
द्रष्टव्य भगवती २/२४ का भाष्य |
१३८. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी १३८. उस काल उस समय स्वामी आए। समोसढे। परिसा पज्जु-वासइ॥ समवसृतः परिषद् पर्युपास्ते।
परिषद् ने पर्युपासना की।
१३९. तए णं से उसभदत्ते माहणे इमीसे ततः सः ऋषभदत्तः माहनः अस्यां कथायां १३९. 'वह ऋषभदत्त ब्राह्मण इस कथा की
कहाए लद्धडे समाणे हट्ठतुट्ठचित्त- लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः जानकारी प्राप्त कर हृष्ट-तुष्ट चित्त माणदिए णदिए पीइमणे परमसो- नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन मणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए। हर्षवश-विसर्पद्मानहृदयः यत्रैव देवानन्दा वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव माहनी तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य विकस्वर हृदय वाला हो गया। जहां उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवाणंदं देवानन्दां माहनी एवम् अवादीत्-एवं खलु। देवानंदा ब्राह्मणी है वहां आता है, आकर माहणिं एवं वयासी-एवं खलु देवानुप्रिये! श्रमणः भगवान् महावीरः देवानंदा ब्राह्मणी से इस प्रकार कहता देवाणुप्पिए! समणे भगवं महावीरे आदिकरः यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी है-देवानुप्रिये! श्रमण भगवान महावीर आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आकाशगतेन चक्रेण यावत् सुखं-सुखेन आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं विहरन् बहशालके चैत्ये यथा प्रतिरूपं आकाशगत धर्मचक्र से शोभित यावत् विहरमाणे बहुसालए चेइए अहापडिरूवं अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं सुखपूर्वक विहार करते हुए बहुशालक
ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा भावयन् विहरति। तत् महत्फलं खलु चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
देवानुप्रिये! तथारूपाणां अर्हतां भगवतां लेकर संयम और तप से अपने आपको तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिए! तहारूवाणं नामगोत्रस्यापि श्रवणं, किमङ्ग पुनः भावित करते हुए रह रहे हैं। अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि अभिगमन-वन्दन-नमस्यन-प्रतिप्रच्छन- देवानुप्रिये! ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण- पर्युपासनम् ?
गोत्र का श्रवण भी महान् फलदायक है फिर वंदण-नमसणपडिपुच्छण . पज्जु । एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य अभिगमन, वंदन, नमस्कार, प्रति-पृच्छा वासणयाए? एगस्स वि आरियस्स श्रवणं, किमङ्ग पुनः विपुलस्य अर्थस्य और पर्युपासना का कहना ही क्या? एक धम्मियस्स सुवय-णस्स सवणयाए, ग्रहणम्?
भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान् किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स तत् गच्छामः देवानुप्रिये! श्रमणं भगवन्तं फलदायक है फिर विपुल अर्थ-ग्रहण का गहणयाए? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए! महावीरं वन्दामहे नमस्यामः सत्कारयामः कहना ही क्या? समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सम्मानयामः कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं इसलिए देवानुप्रिये! हम चलें, श्रमण सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं पर्युपास्महे। एतन् नः प्रेत्यमेव इहमेव च भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार करें, देवयं चेइयं पज्जुवासमो। एयं णे इहभवे हिताय शुभाय क्षमाय निःश्रेयसाय सत्कार-सम्मान करें, भगवान कल्याणय परभवे य हियाए सुहाए खमाए आनुगामिकत्वाय भविष्यति।
कारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ॥
हैं। हम उनकी पर्युपासना करें। यह हमारे इहभव और परभव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के
लिए होगा।
भाष्य १.सूत्र-१३९
गया है। इस पाठ-समूह में छत्र, चामर, सिंहासन और धर्मध्वज का आगासगएणं चक्केणं यह पाठ-समूह औपपातिक से लिया वर्णन है। यह मूल भगवती का प्रतीत नहीं होता। १४०. तए णं सा देवाणंदा माहणी ततः सा देवानन्दा माहनी ऋषभदत्तेन १४०. देवानंदा ब्राह्मणी ऋषभदत्त ब्राह्मण के उसभदत्तेण माहणेणं एवं वुत्ता समाणी माहनेन एवम् उक्ता सती हृष्टतुष्टचित्ता यह कहने पर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली हट्टतुट्ठ-चित्तमाणंदिया णंदिया पीइमणा आनन्दिता नन्दिता प्रीतिमना परमसौम- आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाली १. (क) भ.२.२४॥
(ग) वही १५/१५। (ख) वही. ११ १८६।
२.ओवा. सृ.१९॥
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