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श.९: उ.३३ : सू. १५२-१५५
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भगवई
भाष्य १. सूत्र-१५१
द्रष्टव्य भगवई २/५३ का भाष्य १५२. तए णं सा देवाणंदा माहणी ततः सा देवानन्दा महनी श्रमणस्य भगवतः १५२. देवानंदा ब्राह्मणी श्रमण भगवान समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं महावीरस्य अन्तिक धर्मं श्रुत्वा निशम्य महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा समणं हृष्टतुष्टा श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः कर, हृष्ट-तुष्ट होकर श्रमण भगवान भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते. महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन पयाहिणं करेड़, करेत्ता वंदइ नमसइ, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा बार प्रदक्षिणा करती है. प्रदक्षिणा कर वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं एवमवादीद्-एवमेतद् भदन्त! तथैतद् वंदन-नमस्कार करती है, वंदन-नमस्कार भंते! तहमेयं भंते! एवं जहा उसभदत्तो । भदन्त! एवं यथा ऋषभदत्तः तथैव यावत् कर वह इस प्रकार बोली-भंते! यह ऐसा तहेव जाव धम्ममाइ-क्खियं॥ धर्मः आचक्षितः।
ही है, भंते! यह तथा (संवादिता पूर्ण)- इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त ने कहा वैसे ही यावत् धर्म का आख्यान चाहती हूं।
१५३. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः देवानन्दा
देवाणंदं माहणिं सयमेव पव्वावेइ, माहनी स्वयमेव प्रव्राजयति, प्रव्राज्य पव्वावेत्ता सयमेव अज्जचंदणाए । स्वयमेव आर्यचन्दनायाः शिष्यात्वाय अज्जाए सीसिणित्ताए दलयइ॥ ददाति।
१५३. 'श्रमण भगवान महावीर देवानंदा ब्राह्मणी को स्वयं ही प्रव्रजित करते हैं, प्रव्रजित कर स्वयं ही आर्या चंदना की आर्या शिष्या के रूप में सौंप देते हैं।
१५४. तए णं सा अज्जचंदणा अज्जा ततः सा आर्यचन्दना आर्या देवानन्दा १५४. आर्या चंदना आर्या देवानंदा ब्राह्मणी देवाणंदं माहणिं सयमेव मुंडावेति, माहनीं स्वयमेव मुण्डयति स्वयमेव शैक्षयति। को स्वयं ही मुंडित करती हैं, स्वयं ही सयमेव सेहावेति। एवं जहेव उसभदत्तो एवं यथैव ऋषभदत्तः तथैव आर्यचन्दनायाः शैक्ष बनाती हैं। इस प्रकार ऋषभदत्त की तहेव अज्ज चंदणाए अज्जाए इमं आर्यायाः इमम् एतद्रूपं धार्मिकम् उपदेशं भांति देवानंदा ब्राह्मणी आर्या चंदना के एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्मं संपडि- सम्यक सम्प्रतिपद्यते, तदाज्ञया तथा इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को सम्यक वज्जइ, तमाणाए तह गच्छइ जाव गच्छति यावत् संयमेन संयच्छति।
प्रकार से स्वीकार करती है, उसे भली संजमेणं संजमति॥
भांति जानकर वैसे ही संयमपूर्वक चलती है यावत संयम से संयत रहती है।
१५५. तए णं सा देवाणंदा अज्जा ततः सा देवानंदा आर्या आर्यचन्दनायाः १५५. आर्या देवानंदा आर्या चंदना के पास
अज्जचंदणाए अज्जाए अंतियं आर्यायाः अन्तिकं सामायिकादिकानि सामायिक आदि ग्यारह अंगों का सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई ___ एकादश अङ्गानि अधीते, अधीत्य बहुभिः अध्ययन करती है। अध्ययन कर अनेक अहिज्जइ, अहिजित्ता बहहिं चउत्थ- चतुर्थ-षष्ठ-अष्टम-दशम-द्वादशैः, मासा- चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम भक्त छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहि, मासद्धमास- द्रमासक्षपणैः, विचित्रैः तपःकर्मभिः दशम-भक्त, अर्धमास और मासक्षपणखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं आत्मानं भावयती बहुनि वर्षाणि श्रामण्य इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा अप्पाणं भावेमाणी बहूई वासाइं पर्यायं प्रापनोति, प्राप्य मासिक्या आत्मा को भावित करती हुई बहुत सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता संलेखनया आत्मानं जोषति, जोषित्वा वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, षष्टिं भक्तानि अनशनेन छिनत्ति-छित्वा करती है। पालन कर एक मास की झूसेत्ता सद्धिं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, चरमेषु उच्छवास-निश्वासेषु 'बुद्धा' मुक्ता संलेखना से अपने शरीर को कृश बना, छेदेत्ता चरमेहिं उस्सास-नीसासेहिं परिनिर्वृता सर्वदुःखप्रहीना।
अनशन के द्वारा साठ भक्त का छेदन सिद्धा बुद्धा मुक्का परिनिव्बुडा
करती है। छेदन कर चरम उच्छ्वाससव्वदुक्खप्पहीणा।।
निःश्वास में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाली हो जाती है।
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