________________
भगवई
२८१
श.९: उ. ३३ : सू. १५६,१५७
भाष्य १. सूत्र-१५३-१५५
साहित्य में आर्या चंदना का विस्तृत वर्णन मिलता है। आर्या आर्या चन्दना भगवान महावीर की प्रथम शिष्या थी।' चन्दना ने देवानंदा ब्राह्मणी को दीक्षित किया-आगम साहित्य में पर्युषणा कल्प में आर्या चन्दना को महावीर की छत्तीस हजार इस प्रकार का यह प्रथम उल्लेख है। साध्वी-शिष्याओं में प्रमुख बतलाया गया है। आगम के व्याख्या जमालि-पदं जमालि-पदम्
जमालि-पद १५६. तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगर- तस्य माहनकुंडग्रामस्य पाश्चात्ये अत्र १५६. ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के पश्चिम
स्स पच्चत्थिमे णं एत्य णं खत्तिय क्षत्रियकुण्डग्रामः नाम नगरमासीत्- भाग में क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर थाकुंडग्गामे नाम नयरे होत्था- वण्णओ।। वर्णकः। तत्र क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे जमालिः वर्णक! उस क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में तत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नयरे जमाली नाम क्षत्रियकुमारः परिवसति-आढ्यः दीप्तः जमालि नामक क्षत्रियकुमार रहता है-वह नाम खत्तियकुमारे परिवसइ-अड्डे दित्ते यावत् बहुजनस्य अपरिभूतः, उपरि सम्पन्न, दीप्तिमान यावत् बहुजन के द्वारा जाव बहुज-णस्स अपरिभूते, उप्पि प्रासादवरगतः स्फुटदिभः मृदङ्गमस्तकैः अपरिभवनीय है। वह अपने प्रवर प्रासाद पासाय-वरगए फुट्टमाणेहिं मुइंग- द्वात्रिंशद्बद्धैः नाटकैः वरतरुणीसम्प्रयुक्तैः के उपरिभाग में स्थित है। उसके सामने मत्थएहिं बत्तीसतिबद्धेहिं णाडएहिं उपनृत्यमानः-उपनृत्यमानः, उपगीयमानः- मृदंग-मस्तकों की प्रबल होती हुई ध्वनि वरत-रुणीसंपउत्तेहिं उवनच्चिज्जमाणे- उपगीयमानः, उपलाल्यमानः-उपलाल्य- के साथ वर तरुणियों द्वारा संप्रयुक्त उवनच्चिज्जमाणे, उवगिज्जमाणे- मानः प्रावृद-वर्षारात्र-शरद-हेमन्त-वसन्त- बीस प्रकार के नाटक किए जा रहे हैं। उवगिज्जमाणे, उवलालिज्जमाणे- ग्रीष्मपर्यन्तान् षडपि ऋतून् यथाविभवेन उसके लिए नृत्य किया जा रहा है, उवलालिज्जमाणे, पाउस-वासारत्त- मानयन्, कालं गालयन्, इष्टान् शब्द- इसलिए वह उपनृत्यमान है। उसके सरद-हेमंत-वसंतगिम्ह-पज्जते छप्पि स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् पञ्चविधान गुणगान किए जा रहे हैं, उपलालन किया उऊ जहाविभवेणं माणेमाणे, कालं । मानुष्यकान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् जा रहा है। प्रावृड, वर्षा-रात्र, शीत, गालेमाणे, इढे सद्द-फरिस-रस-रूव. विहरति।
हेमन्त, बसन्त और ग्रीष्म पर्यंत छहों गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे
ऋतुओं के विविध अनुभाव का अनुभव पच्चणुब्भव-माणे विहरइ।।
करता हुआ, उनका अंति संचरण करता हुआ. इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध-इस पंचविध मनुष्य संबंधी कामभोग को भोगता हुआ विहार कर रहा है।
भाष्य १. सूत्र-१५६
१. मृदंग मस्तक-ढोल का ऊपरी भाग, पुट । बत्तीस प्रकार के नाटक : द्रष्टव्य रायपसेणइयं ७४-१२०
१५७. तए णं खत्तियकुण्डग्गामे नयरे ततः क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे शृङ्गाटक-त्रिक- सिंघाडग - तिक - चउक्क - चच्चर- चतुष्क - चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु चउम्मुह-महापह-पहेसु महया जण-सद्दे महान् जनशब्दः इति वा जनव्यूहः इति वा इ वा जणवूहे इ वा जणबोले इ वा जनबोलः इति वा जनकलकलः इति वा जणकलकले इ वा जणुम्मी इ वा जनोर्मिः इति वा जनोत्कलिका इति वा जणुक्कलिया इ वा जणसण्णि-वाए इ जनसन्निपातः इति वा बहुजनः अन्योन्यम् वा बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमा- एवमाख्याति एवं भाषते, एवं प्रज्ञापयति, एवं इक्खइ एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं । प्ररूपयति, एवं खलु देवानुप्रियाः! श्रमणः परूवेइ, एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवान् महावीरः आदिकरः यावत् सर्वज्ञः भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सर्वदर्शी माहनकुण्डग्रामस्य नगरस्य बहिः सव्वदरिसी माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स बहुशालके चैत्ये यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्
१५७. 'क्षत्रियकुंडग्राम नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर महान् जन-शब्द, जनव्यूह, जनबोल, जनकलकल, जन-उर्मि, जन-उत्कलिका, जनसन्निपात, बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रियो! श्रमण भगवान महावीर धर्मतीर्थ के आदिकर्ता यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहशालक चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और
१. सम. प. २३३.३।
२. पज्जो . सू. ९४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org