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भगवई
१३१. एवं जाव मणुस्सा ॥
१३२. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । से तेणद्वेणं गंगेया! एवं वुच्चइ सयं वेमाणिया वेमाणिएसु उववज्जंति, नो असयं वेमाणिया माणिएस उववज्जति ॥
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एवं यावत् मनुष्याः ।
वानमन्तर- ज्योतिष्क- वैमानिकाः यथा असुरकुमाराः । तत् तेनार्थेन गाङ्गेय! एवम् उच्यते - स्वयं वैमानिकाः वैमानिकेषु उपपद्यन्ते, नो अस्वयं वैमानिकाः वैमानिकेषु उपपद्यन्ते ।
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भाष्य
१. सूत्र - १२५-१३२
प्रस्तुत प्रकरण में 'पुनर्जन्म' की व्यवस्था स्वतः चालित है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। कर्म अपना किया हुआ होता है, यह कर्मवाद का प्रथम सिद्धांत है।' स्वकृत कर्म के फल विपाक के अनुसार ही जीव नरक आदि नाना स्थानों में उत्पन्न होता है। वह अपनी उत्पत्ति में ईश्वर आदि किसी शक्ति के परतंत्र नहीं है। यदि कोई दूसरी शक्ति पुनर्जन्म की नियंता हो तो नरक और स्वर्ग में जन्म लेने की व्यवस्था निष्पक्ष नहीं रह सकती। दूसरी शक्ति कर्म के आधार पर ही पुनर्जन्म की व्यवस्था करती है-इस अभिमत में प्रक्रिया गौरव का तार्किक दोष है। पुनर्जन्म की व्यवस्था का मुख्य हेतु कर्म ही है। कर्म की अपना फल विपाक देने की प्रक्रिया स्वतः चालित है फिर उसमें दूसरे का हस्तक्षेप अहेतुक है।
नैरयिक स्वतः अपने ही कर्मों से नरक में उत्पन्न होते हैं। उसके सात हेतु बतलाए गए हैं
१. कर्म का उदय २. कर्म की गुरुता ३. कर्म का भारत्व ४. कर्म की गुरु संभारिता ५. अशुभ कर्मों का उदय ६. अशुभ कर्मों का विपाक ७. अशुभ कर्मों का फल विपाक ।
कर्म की गुरुता, कर्म का भारत्व और कर्म की इन तीन हेतुओं का उल्लेख प्रस्तुत आगम में उपलब्ध है।
गुरु संभारिताअनेक स्थलों पर
• कर्मोदय-नरकोचित कर्म का उदय । कर्म का उदय सब संसारी जीवों के होता है। केवल कर्म के उदय मात्र से जीव नरक में नहीं जाता। वहां जाने के लिए कुछ शर्तें हैं। उन शर्तों की सूचना देने के लिए छह विशेषण बतलाए गए।
• कर्म गुरु हो ।
• कर्म का भार हो ।
• कर्म की गुरुता और भार दोनों हो -कर्म का अति प्रकर्ष हो ।
१. भ. १७/६०-६१ ।
२. भ. ५ १३५ ७ १२।
३. भ. वृ. ९ / १२६ - कर्मोदरणं त्ति कम्र्म्मणामुदितत्त्वेन न च कर्मोदयमात्रेण नारकेषूत्पद्यन्ते, केवलिनामपि तस्य भावाद्, अत आह— 'कम्मगुरुयत्ताए' त्ति कर्मणां गुरुकता कर्मगुरुकता तया 'कम्मभारियत्ताए' ति भारोस्ति येषां तानि भारिकाणि तदभावो भारिकता कर्माणां भारिकता तया चेत्यर्थः, तथा महदपि किञ्चिदल्पभारं दृष्टं तथाविधभारमपि च किञ्चिदमहदित्यत आह-कम्म 'कम्मगुरु संभारियताए' त्ति गुरोः संभारिकस्य च भावो गुरुसम्भारिकता चेत्यर्थः, कर्मणां गुरुसंभारिकता कर्मगुरुसंभारिकता तया, अतिप्रकर्षावस्था चेत्यर्थः
श. ९ : उ. ३२ : सू. १३१
१३१. इस प्रकार यावत् मनुष्य ।
• अशुभ कर्म का उदय हो ।
• अशुभ कर्म का विपाक - रसानुभूति हो ।
• अशुभ कर्म का फल विपाक-रस का प्रकर्ष हो । ये सब शर्ते पूरी होती है तब जीव नरक में उत्पन्न होता है। * देवगति में उत्पत्ति के सात हेतु
१. कर्मोदय- देवोचित कर्म का उदय
२. कर्म विगति - अशुभ कर्म की विगति-स्थिति की अपेक्षा ३. कर्म विशोधि - कर्म का विशोधन-रस विपाक की अपेक्षा । ४. कर्म विशुद्धि-कर्म की विशुद्धि-कर्म-प्रदेश राशि की अपेक्षा * ५. शुभ कर्म का उदय
६. शुभ कर्म का विपाक
७. शुभ कर्म का फल विपाक
तिर्यंच एवं मनुष्य गति में उत्पत्ति के सात हेतु
१३२. वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं। गांगेय ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - वैमानिक वैमानिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं, वैमानिक वैमानिकों में परतः उपपन्न नहीं होते।
१. कर्म का उदय तिर्यक् एवं मनुष्योचित कर्म का उदय । २. कर्म की गुरुता
३. कर्म का भारत्व
४. कर्म का गुरु भारत्व
५. शुभाशुभ कर्म का उदय
६. शुभाशुभ कर्म का विपाक
७. शुभाशुभ कर्म का फल विपाक
नरक गति में जीव केवल अशुभ कर्म के उदय से उत्पन्न होता है। देव गति में शुभ कर्म के उदय से जीव की उत्पत्ति होती है। " तिर्यच और मनुष्य इन दोनों गतियों में शुभाशुभ कर्म के उदय से जीव पैदा होता है।
गति चतुष्टय में जाने के हेतुओं का वर्गीकरण अनेक आगमों में मिलता है। स्थानांग और औपपातिक' में चार-चार हेतुओं का निर्देश है। वे चरित्रमूलक हैं। चरित्र गति-भ्रमण का परोक्ष हेतु है। चरित्र के
५. ठाणं ४ / ६२८-६३१। ६. ओव. सू. ७३।
एतच्च त्रयं शुभकम्मपिक्षयाऽपि स्यादत आह- असुभानमित्यादि उदयः प्रदेशतोऽपि स्यादत आह- 'विवागणं' नि विपाको यथा बद्धरसानुभूतिः, स च मन्दोपि स्यादत आह- फलविवागेणं ति फलस्येवालाबुकादेर्विपाको - विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था फलविपाकस्तेन ।
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४. भ. वृ. ९ / १२८ - कम्मविगईए ति कर्म्मणामशुभानां विगत्या विगमेन स्थितिमाश्रित्य 'कम्मविसोहीए' त्ति रसमाश्रित्य 'कम्मविशुद्धीए ति प्रदेशापेक्षया एकार्था वैते शब्दा इति ।
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