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उदय
स्य
श.९ : उ. ३२ : सू. १३२-१३४ २६८
भगवई साथ जो कर्म का बंध होता है उससे जीव किसी गति में जन्म लेता है प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के हेतुओं का वर्गीकरण है। प्रस्तुत इसलिए वह गति में उत्पत्ति का प्रत्यक्ष हेतु है। स्थानांग और औपपातिक शतक में गति-उत्पत्ति के हेतुओं का निर्देश है, वह प्रत्यक्ष हेतुओं का में गति-हेतुओं का निर्देश है, वह परोक्ष हेतुओं का वर्गीकरण है। प्रस्तुत वर्गीकरण है। आगम के आठवें शतक में गति-उत्पत्ति के हेतुओं का निर्देश है, वह द्रष्टव्य यंत्र
गति | प्रत्यक्ष हेतु नरक | कर्मों का | कर्म की | कर्म का | कर्म का गुरु अशुभ कर्म | अशुभ कर्म |
गुरुता भारत्व | भारत्व का उदय का उदय फल विपाक तिर्यंच कर्मों का कर्म की | कर्म का । कर्म का गुरु | शुभाशुभ कर्म शुभाशुभ कर्म | शुभाशुभ कर्म उदय गुरुता
भारत्व
भारत्व का उदय का उदय का फल विपाक मनुष्य कर्मों का कर्म की कर्म का कर्म का गुरु| शुभाशुभ कर्म | शुभाशुभ कर्म | शुभाशुभ कर्म
गुरुता भारत्व | भारत्व का उदय का उदय का फल विपाक कर्मों का कर्म की । कर्म का | कर्म की गुरु शुभ कर्म का | शुभ कर्म का | शुभ कर्म का उदय विगति | विशोधन| विशुद्धि उदय
विपाक
फल विपाक गति| परोक्ष हेतु
गति । प्रत्यक्ष परोक्ष हेतु नरक महारंभामहापरिग्रह | पंचेन्द्रिया मांसाहार | अशुभ कर्म नरक महारंभ महापरिग्रह पंचेन्द्रिय मांसाहार नरयिक आयुष्य कर्म शरीर
वध का उदय
प्रयोग नाम कर्म का उदय तिर्यंच माया कूट माया | असत्य कूट तोल |शुभाशुभ कर्म तिर्यंच माया | कूट माया असत्य | कूट तोल तिर्यंच योनिक आयुष्य कर्म | वचन कूप माप का उदय
वचन कूप माप शरीर प्रयोग नाम कर्मका उदय मनुष्य प्रकृति प्रकृति सानु- अमत्सरता शुभाशुभ कर्म मनुष्य प्रकृति प्रकृति सानु- | अमत्सरता मनुष्य आयुष्य कर्म शरीर | भद्रता विनीतता | क्रोशता
का उदय
भद्रता | विनीतता कोशता प्रयोग नाम कर्म का उदय देव |सराग संयमासंयम बाल अकाम शुभ कर्म का देव सराग | संयमा- |बाल अकाम | देवायुष्य कर्म शरीर प्रयोग तपःकर्म |निर्जरा | उदय
संगम |संयम तपःकर्म | निर्जरा कर्म का उदय
उदय
वध
| संयम
गंगेयस्स संबोधि-पदं गाङ्गेयस्य संबोधि-पदम्
गांगेय का संबोधि-पद १३३. तप्पभितिं च णं से गंगेये अणगारे तत्प्रभृतिं च सः गाङ्गेयः अनगारः श्रमणं १३३. 'उसके पश्चात् गांगेय अनगार को समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणइ भगवन्तं महावीरं प्रत्यभिजानाति सर्वशं यह प्रत्यभिज्ञा होती है-श्रमण भगवान् सवण्णुं सव्वदरिसिं। तए णं से गंगेये सर्वदर्शिनम्। ततः सः गाङ्गेयः अनगारः श्रमणं महावीर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। अब वह अणगारे समणं भगवं महावीरं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां गांगेय अनगार श्रमण भगवान् महावीर तिक्खुत्तो आया-हिणपयाहिणं करेइ, करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा को दाईं ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करेत्ता, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नमस्यित्वा एवम् अवादीत्-इच्छामि भदन्त! करता है, वंदन नमस्कार करता है, एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुब्भं युष्माकम् अन्तिकं चातुर्यामात् धर्मात् वंदन नमस्कार कर उसने इस प्रकार अंतियं चाउज्जामाओ धम्माओ पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं धर्म उपसम्पद्य कहा-भंते! मैं आपके पास चतुर्याम पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म विहर्तुम्।
धर्म से (मुक्त होकर) सप्रतिक्रमण पंच उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
महाव्रतात्मक धर्म को स्वीकार करना
चाहता हूं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं ।। यथासुखं देवानुप्रिया ! मा प्रतिबन्धम्।
देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो।
१३४. तए णं से गंगेये अणगारे समणं ततः सः गाङ्गेयः अनगारः श्रमणं भगवन्तं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता महावीरं वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा नमंसित्ता चाउज्जामाओ धम्माओ चातुर्यामात् धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं पंचमहव्वइयं सपडि-क्कमणं धम्म सप्रतिक्रमणं धर्म उपसंपद्य विहरति।
१३४. वह गांगेय अनगार श्रमण भगवान्
महावीर को वंदन नमस्कार करता है। वंदन नमस्कार कर चतुर्याम धर्म से मुक्त होकर सप्रतिक्रमण पंच महा
१.भ.८/४२५-४२८॥
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