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________________ भगवई २६९ उवसंपज्जित्ता णं विहरति॥ श. ९ : उ. ३२ : सू. १३५,१३६ व्रतात्मक धर्म को स्वीकार कर विहार करता है। १३५. तए णं से गंगेये अणगारे बहणि ततः सः गाङ्गेयः अनगारः बहूनि वर्षाणि वासाणि सामण्णपरियाणं पाउणइ, श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति, प्राप्य यस्यार्थं पाउणित्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे क्रियते नग्नभावः मुण्डभावः अस्नानकं मुंडभावे अण्हाणयं अदंतवणयं अच्छत्तयं अदन्तवनकम् अछत्रकम् अनुपानत्कं । अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलहसेज्जा भूमिशय्या फलकशय्या काष्ठशय्या कट्ठसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो केशलोचः ब्रह्मचर्यवासः परगृहप्रवेशः परघर-प्पवेसो लद्धावलद्धी उच्चावया लब्धापलब्धिः उच्चावचाः ग्रामकण्टकाः गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा द्वाविंशतिः परीषहोपसर्गाः अधिसह्यन्ते, अहियासिज्जंति, तम8 आराहेइ, तमर्थम् आराध्यति, आराध्य चरमैः आराहेत्ता चरमेहिं उस्सासनीसासेहिं उच्छवास-निश्वासैः सिद्धः बुद्धः मुक्तः सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिव्वुडे सव्व- परिनिवृतः सर्वदुःखप्रहीनः। दुक्खप्पहीणे॥ १३५. वह गांगेय अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करता है, पालन कर जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, स्नान न करना, दतौन न करना, छत्र धारण न करना, पादुका न पहनना, भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षा के लिए गृहस्थों के घर में प्रवेश करना, लाभअलाभ, उच्चावच-ग्रामकंटक, बाईस परीषहों और उपसर्गों को सहन किया जाता है, उस प्रयोजन की आराधना करता है। उसकी आराधना कर चरम उच्छवास निःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता है। भाष्य १.सूत्र-१३३-१३५ __अर्हत् पार्श्व और श्रमण भगवान महावीर की परम्परा में शासन भेद था । पहला भेद चतुर्याम धर्म और पंच महाव्रत धर्म का था। गौतम और केशी स्वामी के मिलन पर यह प्रश्न उठा था-पार्श्व ने चतुर्याम धर्म की देशना दी थी और महावीर पांच महाव्रत रूप धर्म की देशना दे रहे हैं। स्थानांग में बतलाया गया है कि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकर चतुर्याम धर्म का प्रज्ञापन करते हैं। दस कल्प की व्यवस्था में प्रतिक्रमण आठवां कल्प है। अर्हत पार्श्व की शासन व्यवस्था में वह अनिवार्य नहीं है। श्रमण भगवान महावीर की परंपरा में वह अनिवार्य है। महापद्म के प्रकरण में भगवान महावीर स्वयं कहते हैं-मैंने जैसे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए नग्न भाव, मुण्डभाव आदि की व्यवस्था की, अर्हत् महापद्म भी वैसी व्यवस्था करेंगे। इससे ज्ञात होता है कि नग्नभाव, मुण्डभाव आदि की व्यवस्था महावीर द्वारा कृत विशेष व्यवस्था थी। अनगार गांगेय ने उसी व्यवस्था की आराधना की। १३६. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। १३६. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। १. उत्तर.२३/१२। २. ठाणं, ४/१३६। ३. द्रष्टव्य ठाणं ६/१०३ का टिप्पण पृ-७०२। ४. ठाणं ९/६२। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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