________________
आजाव
श.८ : उ.५ : सू. २४२
९०
भगवई कप्पेमाणा विहरंति। एए वि ताव एवं भवन्ति. येषां नो कल्पन्ते इमानि पंचदश हिंसा न करते हुए कृषि द्वारा अपनी इच्छंति किमंग! पुण जे इमे कर्मादानानि स्वयं कर्तुं वा. कारयितुं वा, आजीविका चलाते हैं। समणोवासगा भवंति, जेसिं नो कप्पंति कुर्वन्तं वा अन्यं समनुज्ञातुम, तद्यथा- ये आजीविकोपासक भी इस प्रकार का इमाई पन्नरस कम्मादाणाई सयं करेत्तए अंगारकर्म, वनकर्म, शकटीकर्म, भाटीकर्म, जीवन जीना चाहते हैं तो ये जो वा, कारवेत्तए वा, करेंत वा अन्नं स्फोटी कर्म, दन्त-वाणिज्यम, लाक्षावा- श्रमणोपासक होते है, उनका कहना ही समणुजाणेत्तए, तं जहा-इंगालकम्मे, णिज्यम, केश-वाणिज्यम, रसवाणिज्यम्, क्या ? उन श्रमणोपासकों के लिए इन वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, विषवाणिज्यम्, यन्त्रपीड़नकर्म. निलांछन- पन्द्रह कर्मादानों का आसेवन स्वयं करना, फोडी-कम्मे, दंतवा-णिज्जे, लक्ख- कर्म, दवाग्निदापनम्, सरोद्रह-तडागपरि- दूसरों से करवाना और करने वालों का वाणिज्जे, केसवाणिज्जे, रसवा-णिज्जे, शोषणम् असतीपोषणम्।
अनुमोदन करना-करणीय नहीं है. (पन्द्रह विसवाणिज्जे जंतपीलण-कम्मे, निल्लं
कर्मादान) जैसे-अंगारकर्म, वनकर्म, छणकम्मे, दवग्गि-दावणया, सर-दह
शकटकर्म, भाटककर्म, स्फोटनकर्म तलागपरिसोसणया, असतीपोसणया।
दंतवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, केशवाणिज्य रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपालनकर्म. निलांछनकर्म, दवाग्निदापन, यर-द्रह
तडाग-परिशोषण, असतीपोषण। इच्चेते समणोवासगा सुक्का, सुक्का- इत्येते श्रमणोपासकाः शुक्लाः, शुक्ला- ये श्रमणोपासक शुक्ल, शुक्ल अभिजाति भिजातीया भवित्ता कालमासे कालं भिजात्या भूत्वा कालमासं कालं कृत्वा । वाले होकर कालमास में काल कर किसी किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपत्तारो देवलोक में देवरूप में उपपन्न होते है। उववत्तारो भवंति॥
भवन्ति ।
भाष्य १. सूत्र २४१-२४२
आजीवक के बारह उपासकों के नाम बतलाए गए हैं। उनकी वृत्तिकार ने अक्षीण प्रतिभोजी का अर्थ अप्रासुक या सचित्त पांच विशेषाताओं का निर्देश हैभोजी किया है। इसका तात्पर्यार्थ आहार योग की आसक्ति वाला है।' १. अर्हत को अपना देव मानते हैं। श्रमणों में अर्हत का प्रयोग वेसम ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। उनके अनुसार जिनकी व्यापक रूप से होता रहा है। जैन, बौद्ध, आजीवक-इन सब परम्पराओं उपभोग करने की शक्ति क्षीण नहीं हुई है, वे अक्षीण प्रतिभोजी हैं। में इस शब्द का प्रयोग मिलता है। इसकी व्यापकता का साक्ष्य है जोजेफ डेल्यू ने वृत्तिकार और वेसम दोनों के मत को अस्वीकार किया इसिभासियाई। उसमें पैंतालीस अर्हतों के प्रवचनों का संकलन है। है। उन्होंने सुबिंग के मत को मान्य कर अपनी व्याख्या की है। सुबिंग वे अर्हत अनेक परम्पराओं के हैं। के अनुसार अक्षीण प्रतिभोजी का अर्थ यह है--जिस कर्म के द्वारा २. माता-पिता की शुश्रूषा करने वाले। सात-असात का परिभोग होता है, उस कर्म का जिनमें उदय नहीं हुआ ३. उदुम्बुर आदि पांच फलों का वर्जन करने वाले। है, वे अक्षीण प्रतिभोजी हैं। क्योंकि सब जीवों को अवश्य सुख दुःख ४. मूल का वर्जन करने वाले। भोगना है, अतः आजीवक लोग सब तरह की हिंसा आहार संग्रह के ५. बधिया न किए हुए, नथनी न डाले हुए बैलों से त्रस प्राणी लिए करते हैं।
रहित खेतों में कृषि कर अपनी आजीविका चलाते हैं। सूत्रकार ने १. भ. वृ. ८/२४१-अक्षीण-अक्षीणायुष्कमप्रासुकं परिभुजन इत्येवंशीला reborn in the heavens. अक्षीणपरिभोगिनः अथवा इन प्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वादक्षीणपरिभोगा--- I do not follow Abhny's explanation of akkhina (aksinam अनपगताहारभोगासक्तय इत्यर्थः ।
aksin' ayuskam aprasukam, i.e. Prakrit aphasuyam), nor २. Viyah PannottiJozef deleu Page 149--
BASHAM's (History and Doctrines of the Ajivikas, London (369b) According to the doctrine (samaya) of the ajiviyas 1951, P. 122: all beings whose (capacity for enjoyment all beings are akkhina-padibhoi (comm.. a.paribhoi), is unimpaired obtain their food oy killing...'), but which means that they experience (karman) not yet real- SCHUERING's (in his review of Basham's work. ZDMG ized (in agreeable or disagreeable feelings). Consequently 104 (1954). p. 262 seq.) --For the term arithaniadevata(scil because all beings are bound to suffer) the ajiviyas
ga, see BASHAM O.C., p. 140 and 276, and SCHUBRING (think it is allowed to use all kinds of violence to get their O.C..p.263.--There of the proper names also appeared tood. I welve ajiviya laymen, though, their names Tala, in Vilio, where they were names of annautthiyas, we Talapalamba, Uvviha, Samviha, Avaviha, Udaya. shall meet Ayampula again in XV C 8. Namudaya, Namudaya, Anuvalaya, Sankhavalaya, (370a) The four classes of (gods and their) abodes Ayambula, Kayaraya) shun five fruits as well as perform- ३. इसिभासियाई परिशिष्ट ? ing, causing and allowing fifteen practices. They will be
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org