SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई आजीवक उपासकों के आजीविका विवेक के संदर्भ में श्रमणोपासकों की आजीविका का विवेक प्रस्तुत किया है। बारह व्रती श्रमणोपासक पंद्रह कर्मादानों का वर्जन कर आजीविका चलाते हैं। कर्मादान के वर्गीकरण में तत्कालीन पंद्रह व्यवसायों का उल्लेख है। हिंसा की अधिकता के कारण इन व्यवसायों को कर्मादान कहा गया। सिद्धसेनगणि ने इन्हें बहुसावध कर्म बतलाया है।' १. इंगाल कम्मे-अंगार कर्म, कोयला बनाना, ईंट बनाना आदि, उनका विक्रय करना। २. वण कम्मे-वन कर्म, जंगल की कटाई, विक्रय। ३.साडी कम्मे-शकट कर्म, गाड़ी, रथ आदि का निर्माण, वाहन और विक्रय। ४. भाडी कम्मे-भाटी कर्म, बैलगाड़ी आदि के द्वारा दूसरों के माल को देशांतर ले जाना। ५. फोडी कम्मे स्फोट कर्म. सुरंग आदि बिछाकर विस्फोट करना, खाने खोदना। ६. दंतवाणिज्जे-दंतवाणिज्य, हाथी दांत आदि का व्यापार। ७. लक्खवाणिज्जे-लाक्षावाणिज्य, लाख का व्यापार। ८. केसवाणिज्जे-केशवाणिज्य, केश वाले जीव-गाय, भैंस, स्त्री आदि का व्यापार। ९. रसवाणिज्जे-रसवाणिज्य, मादक द्रव्यों का व्यापार। १०. विषवाणिज्जे-विष वाणिज्य, विष का व्यापार। ११. जंतपीलणकम्मे-यंत्रपालनकर्म, तिल, ईक्षु आदि को पेलना। १२. निल्लंछणकम्मे-निलाछन कर्म, बैल आदि को बधिया करना। १३. दवग्निदावणया-जंगल को जलाना। १४. सरदहतलाय सोसणया-सरोवर, द्रह, तालाब आदि को सुखाना। १५. असईजणपोसणया-असतीजन पोषणता, आजीविका के लिए दासी तथा कुर्कुट, मार्जार आदि का पोषण करना। जयाचार्य ने असती पोषण पर विस्तार से विचार किया है। उसका निष्कर्ष है--आजीविका के लिए असंयमी का पोषण करना । असती पोषण है। दिगम्बर साहित्य में कर्मादान के स्थान पर खरकर्म शब्द का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ प्राणियों को पीड़ा देने वाला क्रूरकर्म किया गया है। १. वनजीविका-स्वयं टूटे हुए अथवा तोड़कर वृक्ष आदि को बेचना, गेहूं आदि धान्यों को पीस-कूट कर व्यापार करना। १. न. सू. भा. वृ. ७/१६-प्रदर्शनं चैतद् बहुसावधानां कर्मणाम्। २. भ. वृ.८.२४२। ३. भ. जो.२/१४३/३८-४७। ४. सागारधर्मामृत ५/२१-२३। ५. जै. सि. को. ४, पृ. ४२२। ६. भ. वृ.८.२४२-गते निग्रंथसत्का सुक्कत्ति शुक्ला अभिन्नवृत्ता अमत्सरिणः कृतज्ञाः सदारम्भिणी हितानुबंधाश्च सुक्काभिजाइयत्ति शुक्लाभिजात्याः श. ८: उ.५ : सू. २४२ २. अग्निजीविका-कोयला तैयार करना। ३. अनोजीविका (शकट जीविका)-गाड़ी, रथ तथा उसके चक्र आदि स्वयं बनाना अथवा दूसरे से बनवाना, गाड़ी जोतने का व्यापार स्वयं करना। ४. स्फोटजीविका-पटाखे, आतिशबाजी आदि बारूद की चीजों से आजीविका करना। ५. भाटक जीविका-गाय, घोड़ा आदि से बोझा ढोकर आजीविका करना। ६. यंत्रपीड़न जीविका-तिल आदि को कोल्हू में पिलवाना, कोल्हू चलाना, तिल आदि के बदले तैल आदि लेना। ७. निर्लाग्छन कर्म-बैल आदि पशुओं के नाक आदि छेदने का धंधा करना, शरीर के अवयव छेदना। ८. असतीपोष-हिंसक प्राणियों का पालन पोषण करना. भाड़े की उत्पत्ति के लिए दास-दासियों का पोषण करना। ९.सरःशोष-अनाज बोने के लिए जलाशयों से नाली खोदकर पानी निकालना। १०. दवदाह-वन में घास आदि को जलाने के लिए आग लगाना। ११. विष वाणिज्य-प्राणघातक विष का व्यापार करना। १२. लाक्षा वाणिज्य-लाख का व्यापार। इसी प्रकार टाकनखार, मनसिल, गुगल, घाय के फूल, जिनसे मद्य बनता है, आदि पदार्थों का व्यापार करना। १३. दंत वाणिज्य-भीलों आदि से हाथी दांत आदि खरीदना। १४. केश वाणिज्य-दास-दासी और पशुओं का व्यापार करना। १५. रस वाणिज्य-मक्खन, मधु. चरबी, मद्य आदि का व्यापार करना। श्रमणोपासकों के लिए शुक्ल और शुक्लाभिजाति-इन दो विशेषणों का प्रयोग किया गया है। अभयदेव सूरि ने शुक्ल का अर्थ अभिन्न चारित्र वाला, अमत्सरी, कृतज्ञ, सत्प्रवृत्ति वाला और हित का अनुबंध रखने वाला तथा शुक्लाभिजाति का अर्थ शुक्लप्रधान किया है। पूरणकाश्यप, आजीवक मत के आचार्य गोशालक तथा भगवान बुद्ध ने छह अभिजातियों का प्रतिपादन किया है। इससे ज्ञात होता है-अभिजाति का प्रयोग तत्कालीन श्रमण साहित्य में बहुत प्रचलित था। आगम साहित्य में इसका प्रयोग विरल रूप में ही मिलता है, केवल भगवती में ही उपलब्ध है। श्रमणोपासक अन्यतर देवलोक में उपपन्न होते हैं। इसमें किसी देवलोक का नामोल्लेख नहीं है। प्रथम शतक में श्रमणोपासक के पुनर्जन्म के विषय में निर्देश मिलता है। श्रमणोपासक जघन्यतः प्रथम स्वर्ग और उत्कृष्टतः बारहवें स्वर्ग में उपपन्न होता है। शुक्लप्रधानाः। ७. उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन पृ. २४२-२४३। ८. (क) भ. १४/१३६ तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भविना तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। (ख) वही १५/१०१। २. भ. वृ. सू.-१/११३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy