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भगवई
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श.८ : उ. ५ : सू. २४१-२४२
करूंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से. काया से। करंगा नहीं मन से, वचन से। करूंगा नहीं मन से, काया से। करूंगा नहीं वचन से, काया से। कराऊंगा नहीं मन से, वचन से। कराऊंगा नहीं मन से, काया से। कराऊंगा नहीं वचन से, काया से। अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से। अनुमोदूंगा नहीं मन से, काया से। अनुमोदूंगा नहीं वचन से, काया से। करूंगा नहीं मन से। करूंगा नहीं वचन से। करंगा नहीं काया से। कराऊंगा नहीं मन से। कराऊंगा नहीं वचन से। कराऊंगा नहीं काया से। अनुमोदूंगा नहीं मन से। अनुमोदूंगा नहीं वचन से।
अनुमोदूंगा नहीं काया से। इसी प्रकार वर्तमान के संवरण और अनागत के प्रत्याख्यान के उनपचास-उनपचास भंग बनते हैं। ये एक सौ सैंतालीस भंग (१९४३) स्थूल प्राणातिपान विरमण व्रत के हैं। प्राणातिपात आदि पांच अणुव्रतों के कुल भंग (१४७४५) सात सौ पैंतीस होते हैं। २४१. आजीवियसमयस्स णं अय- आजीविकसमयस्य अयमर्थः-अक्षीण- २४१. आजीवक समय का यह अर्थ मढे-अक्खीणपडिभोइणो सव्वे सत्ता; प्रतिभोजिनः सर्वे सत्वाः, तत् हत्वा, प्रतिपाद्य है सब प्राणी सजीव का परिभोग से हंता,छेत्ता,भेत्ता,लुपित्ता, विलंपित्ता, छित्त्वा, भित्त्वा, लुप्त्वा, विलुप्य, उपद्रुत्य करने वाले हैं इसलिए वे जीवों को हनन, उद्दवइत्ता आहारमाहारेति।। आहारमाहरन्ति।
छेदन, भेदन, लोपन, विलोपन और प्राण वियोजन कर आहार करते हैं।
२४२. तत्थ खलु इमे दुवालस तत्र खलु इमे द्वादश-आजीविकोपासकाः २४२. आजीवक समय में बारह
आजीवियोवासगा भवंति,तं जहा- १. भवन्ति, तद्यथा- १. तालः २. आजीवकोपासक हैं, जैसे-१. ताल, २. ताले २. तालपलंबे ३. उब्बिहे ४. संविहे तालप्रलम्बः ३. उद्विधः ४. संविधः, ५. ताल प्रलंब ३. उद्विध ४. संविध ५. ५. अवविहे ६. उदए ७. नामुदए ८. अपविधः ६. उदकः ७. नामोदकः ८. अपविध ६. उदक ७. नामोदक ८. णम्मदए ९. अणुवालए १०. संखवालए नर्मोदकः ८. अनुपालकः १० शंखपालकः नर्मोदक . अनुपालक १० शंखपालक ११. अयपुले १२. कायरए-इच्चेते दुव- ११. अयम्पुलः १२. कायरकः--इत्येते ११. अयंपुल १२. कायरक-ये बारह लिस
आजीवि-ओवासगा। द्वादश आजीविकोपासकाः अर्हदेवतकाः, आजीवकोपासक अर्हत को अपना देवता अरहंतदेवतागा,
अम्मा- अम्बापितृशुश्रूषकाः पञ्चफलप्रतिक्रान्ताः । मानते हैं, माता-पिता की शुश्रूषा करने पिउसुस्सूसगा,पंचफलपडिक्कंता, (तं । (तद्यथा-उदुम्बरैः, वटः, बदरैः, सतरैः वाले हैं, पांच फलों का परित्याग करने जहा-उबेरेहि, वडेहिं, बोरेहिं, सतरेहिं, प्लक्षैः) पलाण्डुलशुन-कन्दमूलविवर्जकाः, वाले हैं, (जैसे-उदुम्बर, वट, पीपल पिलक्खूहि)
पलंडुल्ह- अनिाछितैः, अनकभिन्नैः गोभिः अंजीर, पाकर) प्याज, लहसुन, कंद और सुणकंदमूलविवज्जगा, अणिल्लं. त्रसप्राणविवर्जितैः क्षेत्रैः वृत्तिं कल्पमानाः मूल का वर्जन करने वाले हैं. नपुंसक छिएहिं अणक्कभिन्नेहिं गोणेहिं विहरन्ति। ते अपि तावत् एवम् इच्छन्ति बनाए बिना, नाक का छेदन किए बिना, तसपाणविवज्जिएहिं छेत्तेहिं वित्तिं किमंग! पुनः ये इमे श्रमणोपासकाः बैलों से खेत जोत कर नस जीवों की
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