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________________ भगवई १४५ श.८: उ.९ : सू. ३७२-३७५ उदएण? होता है? गोयमा! वीरिय-सजोग-सहव्वयाए गौतम! वीर्य-सयोग-सद्व्यतया प्रमाद- गौतम! मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीर पमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च प्रत्ययात् कर्म च योगं च भवं च आयुष्कं च । प्रयोग बंध के तीन हेतु हैं-वीर्य सयोग आउयं च पडुच्च मणुस्स- प्रतीत्य मनुष्यपञ्चेन्द्रिय औदारिकशरीर- सद्व्यता, प्रमाद तथा कर्म, योग, भव पंचिंदियओरालिय - सरीरप्पयोगनाम- प्रयोगनामकर्मणः उदयेन मनुष्यपञ्चेन्द्रिय- और आयुष्य सापेक्ष मनुष्य पंचेन्द्रिय कम्मस्स उदएणं मणुस्स-पंचिंदिय- औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः। औदारिकशरीरप्रयोग नामकर्म का उदय। ओरालियसरीरप्पयोगबंधे॥ भाष्य १.सूत्र ३६७-३७२ की प्रवृत्ति। सद्र्व्य -औदारिक वर्गणा के पुद्गल। ये औदारिक शरीर __ जीव अपने शरीर का निर्माण करता है। सूक्ष्म और सूक्ष्मतर प्रयोग बंध के निमित्त बनते हैं। शरीर-तैजस और कार्मण शरीर सदा जीव के साथ रहते हैं। स्थूल द्रष्टव्य भगवती ५/११० का भाष्य। शरीर का निर्माण नए जन्म के साथ होता है और जीवन की समाप्ति के २.प्रमाद साथ वह छूट जाता है। औदारिक-वैक्रिय और आहारक-ये तीन ३. कर्म, योग, भव और आयुष्य सापेक्ष शरीर प्रयोग नामकर्म स्थूल शरीर हैं। औदारिकशरीर का निर्माण मनुष्य और तिर्यंच (पशु, का उदय-उदयवर्ती कर्म, काय आदि की प्रवृत्ति, अनुभूयमान मनुष्य पक्षी आदि) करते हैं। वैक्रिय शरीर का निर्माण नैरयिक और देव करते। __ आदि का भव, उदयवर्ती मनुष्य आदि का आयुष्य-इन सबसे सापेक्ष हैं। आहारक शरीर का निर्माण लब्धि या योगज विभूति से किया होकर औदारिक शरीर प्रयोग नाम कर्म औदारिक शरीर के प्रयोग का जाता है। द्रष्टव्य भगवती १/३४०-३४९ का भाष्य। संपादन करता है। औदारिक शरीर प्रयोग बंध के तीन हेतु बतलाए हैं-- औदारिक शरीर की रचना का मुख्य हेतु नाम कर्म है। वीर्य, १.वीर्य सयोग सद्व्यता योग, पुद्गल आदि सब उसके सहकारी कारण है। षट्खण्डागम में वीर्य-वीर्यान्तर क्षय जनित शक्ति। योग-मन, वचन, काया शरीर बंध की गणना नोकर्म की कोटि में की गई है।' ३७३. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्तः किं ३७३. 'भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबंध क्या किं देसबंधे? सव्वबंधे? देशबन्धः ? सर्वबन्धः? देश बंध है ? सर्व बंध है? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि।। गौतम ! देशबन्धोऽपि, सर्वबन्धोऽपि। गौतम ! देश बंध भी है, सर्व बंध भी है। ३७४. एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे एकेन्द्रिय - औदारिक - शरीर - प्रयोगबन्धः णं भंते! किं देसबंधे? सव्वबंधे? भदन्त ! किं देशबन्ध? सर्वबन्धः? एवं चेव। एवं पुढविक्काइया एवं जाव- । एवं चैव। एवं पृथिवीकायिकाः एवं यावत्। ३७४. भंते ! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध क्या देश बंध है? सर्व बंध है? औदारिकशरीरप्रयोगबंध की भांति वक्तव्यता इसी प्रकार पृथ्वीकायिक यावत् ३७५. मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीर- मनुष्यपञ्चेन्द्रिय - औदारिक- शरीरप्रयोग- ३७५. भंते! मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक प्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे? बन्धः भदन्त ! किं, देशबन्धः ? सर्वबन्धः? शरीरप्रयोगबंध क्या देश बंध है? सर्व सव्वबंधे? बंध है? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि।। गौतम! देशबन्धोऽपि. सर्वबन्धोऽपि। गौतम ! देश बंध भी है, सर्व बंध भी है। भाष्य १.सूत्र ३७३-३७५ लौटने का पहला समय भी सर्व बंध का समय होता है। द्रष्टव्य औदारिक शरीर प्रयोग बंध की दो अवस्थाएं होती हैं भगवती ८/३७६। १.देश बंध २. सर्वबंध द्वितीय आदि समयों में ग्रहण के साथ विसर्जन की प्रक्रिया एक जीव पूर्व शरीर का परित्याग कर नए शरीर का चालू हो जाती है। जीव पुद्गलों का ग्रहण करता है और उनका निर्माण करता है। निर्माण के प्रथम समय में वह शरीर के योग्य विसर्जन भी करता है। उस अवस्था में केवल बंध (ग्रहण) नहीं होता पुद्गलों का केवल ग्रहण करता है इसलिए वह सर्व बंध है। है इसलिए वह देश बंध है, इसका तात्पर्यार्थ है-प्रथम समय में निर्मित इसका तात्पर्यार्थ है-जीवन यात्रा के लिए आवश्यक शक्तियों का शक्तियों के लिए आवश्यक साधनों का ग्रहण और अनावश्यक का निर्माण। वैक्रिय शरीर के निर्माण के पश्चात पुनः औदारिक शरीर में उत्सर्जन। १. भ. वृ.८.३६० २. ष, खं, पु. १४.५.६,४० पृ. ३७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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