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________________ १४६ श. ८ : उ. ९ : सू. ३७६-३७८ भगवई अभयदेव सूरि ने अपूप के दृष्टांत द्वारा इसे समझाया है। तैल का ग्रहण करता है, शेष क्षणों में ग्रहण और विसर्जन दोनों तेल या घी से भरी कढ़ाई में प्रक्षिप्त 'पूआ' पहले समय में घी अथवा करता है।' ३७६. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! ३७६. 'भंते! औदारिक शरीर प्रयोग बंध कालओ केवच्चिरं होइ? कालतः कियच्चिरं भवति? काल की अपेक्षा कितने काल तक रहता गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे गौतम! सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्केसेणं तिण्णि जघन्येन एकं समयं, उत्कर्षेण त्रीणि पलिओवमाइं समयूणाई॥ पल्योपमानि समयोनानि। गौतम ! सर्व बंध का कालमान एक समय। देश बंध का कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः एक समय न्यून तीन पल्योपम है। ३७७. एगिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे एकेन्द्रिय - औदारिकशरीर - प्रयोगबन्धः ३७७. भंते! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोग णं भंते! कालओ केवच्चिर होइ? भदन्त ! कालतः कियच्चिरं भवति? बंध काल की अपेक्षा कितने काल तक रहता है? गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे गौतम! सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः गौतम! सर्व बंध का कालमान एक समय। जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण द्वाविंशति । देश बंध का कालमान जघन्यतः एक बावीसं वाससहस्साइं समयूणाई। वर्षसहस्राणि समयोनानि। समय, उत्कृष्टतः एक समय न्यून बाईस हजार वर्ष है। ३७८. पुढविक्काइयएगिदियपुच्छा। पृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय पच्छा। ३७८. पृथ्वीकायएकेन्द्रिय औदारिकशरीरगोयमा! सव्वबंधे एक्कं समय, देसबंधे। गौतम! सर्वबन्ध: एकं समयं, देशबन्धः प्रयोग बंध की पृच्छा। जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, जघन्येन 'खुड्डाग भवग्रहणं त्रिसमयोनम् गौतम ! सर्व बंध का कालमान एक समय। उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई उत्कर्षेण द्वाविंशति वर्षसहस्राणि समयो- देश बंध का कालमान जघन्यतः तीन समयूणाई। एवं सव्वेसिं सव्वबंधो एक्कं नानि। एवं सर्वेषां सर्वबन्धः एकं समय, समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण, उत्कृष्टतः समयं, देसबंधो जेसिं नत्थि देशबन्धः येषां नास्ति वैक्रियशरीरं तेषां एक समय न्यून बाईस हजार वर्ष है। इसी वेउब्वियसरीरं तेसिं जहण्णेणं खुड्डागं जघन्येन 'खुड्डाग' भवग्रहणं त्रिसमयोनम, प्रकार सबके सर्व बंध का कालमान एक भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं जा सा उत्कर्षेण या सा स्थितिः सा समयोना समय। देश बंध का नियम यह है-जिनके ठिती सा समयूणा कायव्वा, जेसिं पुण कर्त्तव्या, येषां पुनः अस्ति वैक्रियशरीरं तेषां वैक्रिय शरीर नहीं है, उनके जघन्यतः तीन अत्थि वेउब्वियसरीरं तेसिं देसबंधो देशबन्धः जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षण समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण है, जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जा या यस्य स्थितिः सा समयोना कर्त्तव्या उत्कृष्टतः जो स्थिति निर्दिष्ट है, उसमें एक जस्स ठिती सा समयूणा कायव्वा जाव यावत् मनुष्याणां देशबन्धः जघन्येन एकं समय न्यून कर देना चाहिए। मणुस्साणं देसबंधे जहण्णेणं एक्कं समयम्, उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि जिनके वैक्रिय शरीर है, उनके देश बंध का समयं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं समयोनानि। कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः समयूणाई। जिसके जितनी स्थिति निर्दिष्ट है, उसमें एक समय न्यून कर देना चाहिए यावत मनुष्यों के देश बंध का कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः एक समय न्यून तीन पल्योपम है। भाष्य १. सूत्र ३७६-३७८ लौटते हैं तब एक समय की अवधि वाला सर्व बंध होता है। उसके देश बंध की जघन्य स्थिति एक समय कैसे हो सकती है? इस अग्रिम समय में देश बंध करता है और एक समय के अनंतर उसकी प्रश्न का समाधान वृत्तिकार ने किया है। वायुकाय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय मृत्यु हो जाती है। इस अपेक्षा से देश बंध की जघन्य स्थिति एक और मनुष्य वैक्रिय शरीर का निर्माण कर पुनः औदारिक शरीर में समय बतलाई गई है। १. भ, वृ. ८.३०३-तत्र यथा अपूपः स्नेहभृततापतापिकायां प्रक्षिप्सः प्रथम समये २. भ. वृ. ८/३७३-तत्र यदा वायुमनुष्यादिर्वा वैकियं कृत्वा विहाय च गृह्णात्येवेत्ययं सर्वबंधः। ततो द्वितीयादिषु समयेष नान गृह्णाति विसृजति चेत्येवं पुनरीदारिकस्य समयमेकं सर्वबंधं कृत्वा पुनस्तस्य देशबंधं कुर्वन नेकरामयानंतर दश बंधः। मियते तदा जघन्यत: एकसमयं देशबंधोस्य भवतीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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