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भगवई
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श.८ : उ.९ : सू. ३७९,३८० एकेन्द्रिय के देश बंध की उत्कृष्ट स्थिति एक समय न्यून होता है।' बाईस हजार वर्ष बतलाई गई है। उत्पत्ति के पहले समय में सर्व बंध ६५५३६२३७७३८१७१३९५/३७७३। होता है। इस अपेक्षा से एक समय न्यून किया गया है।
गोम्मटसार के अनुसार एक मुहूर्त में क्षुल्लक भव ग्रहण की औदारिक शरीर वाले जीवों का सबसे छोटा जीवन दो सौ संख्या छासठ हजार तीन सौ छत्तीस (६६३३६) होती है फलतः एक छप्पन आवलिका का होता है। इसकी संज्ञा है क्षुल्लक भव ग्रहण। श्वासोच्छवास क्षुल्लक भव ग्रहण की संख्या अठारह होती है। अंतमुहर्त में पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस क्षुल्लक भव होते हैं। एक पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने वाला तीन समय की विग्रह गति से मुहर्त में क्षुल्लक भव ग्रहण की राशि तीन हजार सात सौ तिहत्तर उत्पत्ति स्थान में आता है। प्रथम दो समयों में अनाहारक रहता है और (३७७३) होती है। उससे उच्छवास राशि का भाग देने पर जो लब्ध तीसरे समय में वह आहार ग्रहण करता है। वह सर्व बंध का समय है। होता है वह एक उच्छवास में क्षुल्लक भव का परिमाण बनता है। इस इस अपेक्षा से देश बंध की जघन्य स्थिति तीन समय न्यून क्षुल्लक प्रकार एक श्वासोच्छवास में कुछ अधिक सतरह क्षुल्लक भव ग्रहण भव ग्रहण बतलाई गई है। ३७९. ओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते! औदारिकशरीरबन्धान्तरं भदन्त ! कालतः ३७९. 'भते! औदारिक शरीर के बंध का कालओ केवच्चिरं होइ? कियच्चिरं भवति?
अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का
गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तेत्तीसं भवग्रहणं त्रिसमयोनम,उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोवमाई पुव्वकोडिसमयाहियाई। सागरोपमानि पूर्वकोटिसमयाधिकानि। देसबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं, देशबन्धान्तरं जघन्येन एक समयम्, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि त्रितिसमया-हियाई॥
समयाधिकानि।
गौतम! औदारिक शरीर के सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण, उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम एक समय अधिक पूर्व कोटि है। देश बंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टत: तीन समय अधिक तैतीस सागरोपम है।
३८०. एगिदियओरालियपुच्छा।
एकेन्द्रिय औदारिकपृच्छा।
गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं गौतम ! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं भवग्रहणं त्रिसमयोनम, उत्कर्षेण द्वाविंशति वाससहस्साई समयाहियाई। देसबंधंतरं। वर्षसहस्राणि समयाधिकानि। देशबन्धान्तरं जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतो- जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षण मुहत्तं॥
अन्तर्मुहूर्त्तम्।
३८०. एकेन्द्रिय औदारिक शरीर के बंध के
अंतर की पृच्छा। गौतम ! एकेन्द्रिय औदारिक शरीर के सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण, उत्कृष्टतः एक समय अधिक बाईस हजार वर्ष है। देश बंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त है।
भाष्य
१. सूत्र ३७९-३८०
सर्व बंध का अंतर-दो सर्व बंधों का मध्यकाल सर्व बंध का अंतर होता है। सर्व बंध का जघन्य कालमान तीन समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण है। उदाहरण स्वरूप कोई जीव तीन समय विग्रह गति कर औदारिक शरीर के रूप में उत्पन्न होता है, उसमें विग्रह गति के प्रथम दो समय अनाहारक अवस्था में रहता है, तीसरे समय में वह सर्व बंधक होता है। क्षुल्लक भव के कालमान तक जीवित रहकर मरता है और पुनः औदारिक शरीर के रूप में उत्पन्न होता है। वहां प्रथम समय में सर्व बंधक होता है। इस प्रकार सर्व बंध से सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन समय न्यनक्षल्लक भव प्रमाण है।* १. (क) भ. बृ.८.३०८
(ख) भ. जो. २,१५८,३१ का वार्निका। २. गोम्मटसार, जीवकांड, गा. १२३
तिणि सया छनीसा, छविट्टिसहस्सगाणि मरणाणि। अंतो मुहुनकाले तावदिया चेव खुद्दभवा॥
अविग्रह गति से उत्पन्न होने वाला मनुष्य प्रथम समय में सर्वबंध करता है। करोड़ पूर्व तक आयुष्य भोगकर तैतीस सागरोपम स्थिति वाला नारक अथवा सर्वार्थसिद्ध का देवता होता है। वह वहां से च्युत होकर तीन समय वाली विग्रह गति से पुनः औदारिक शरारी बनता है। वह अनाहारक के दो समयों को छोड़कर तीसरे समय में सर्व बंध करता है। औदारिक शरीर के दो अनाहारक समयों में से एक समय पूर्व कोटि में सर्व बंध के समय के स्थान पर प्रक्षेप करने पर पूर्व कोटि पूर्ण हो जाती है। इस प्रकार सर्व बंध के अंतर का उत्कृष्ट कालमान संगत होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच के लिए भी यही नियम है। वह नरक में ही उत्पन्न होता है, सर्वार्थ सिद्ध में नहीं।' ३. भ. वृ.८/३७८॥ १. वही, ८/३८०॥ ५.भ.वृ.८.३८०1
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