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श.९ : उ.३३ : सृ. १७७
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भगवई
वा भुयाहि दुत्तरो, तिक्खं कमियव्वं, नो खलु कल्पते जात! श्रमणेभ्यः गरुयं लंबेयव्वं, असिधारगं वयं निर्ग्रन्थेभ्यः आधाकर्मिक इति वा, चरियव्वं।
औद्देशिक इति वा, मिश्रजात इति वा, नो खलु कप्पइ जाया! समणाणं अध्यवतरक इति वा, पूतिक इति वा, क्रीत निग्गंथाणं अहाकम्मिए इ वा, उद्देसिए इ । इति वा, प्रामित्य इति वा, आच्छेद्य इति वा, वा, मिस्सजाए इ वा, अज्झोयरए इ वा, अनिसृष्ट इति वा. अभिहत इति वा, पूइए इ वा, कीते इ वा, पामिच्चे इ वा, कान्तारभक्त इति वा. दुर्भिक्षभक्त इति वा. अच्छेज्जे इवा, अणिसटे इवा, अभिहडे ग्लानभक्त इति वा, वार्दलिकाभक्त इति इवा, कंतारभत्ते इ वा, दुब्भिक्खभत्ते इ वा. प्राघुणकभक्त इति वा, शय्यातरपिण्ड वा, गिलाणभत्ते इ वा, वहलियाभत्ते इ । इति वा, राजपिण्ड इति वा, मूलभोजनम् वा, पाहणगभत्ते इ वा, सेज्जायरपिंडे इ इति वा, कन्दभोजनम् इति वा फलभोजनम् वा, रायपिंडे इ वा, मूलभोयणे इ वा, इति वा, हरितभोजनम् इति वा, भोक्तुं वा कंदभोयणे इ वा, फलभोयणे इ वा, पातुं वा। त्वम् असि च जातः सुखसमुचितः बीयभोयणे इ वा, हरियभोयणे इवा, भोत्तए नो चैव दुःखसमुचितः, नालं शीतं, नालम् वा पायए वा।
उष्णं, नालं क्षुधा, नालं पिपासा, नालं तुम सि च ण जाया! सुहसमुचिए नो चेव चौरान. नालं व्यालान, नालं दंशान, नालं णं दुहसमुचिए, नालं सीय, नालं उण्हं, मशकान. नालं वातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिकनालं खुहा, नालं पिवासा, नालं चोरा, सन्निपातिकान् विविधान् रोगातङ्कान, नालं वाला, नालं दंसा, नालं मसगा, परीषहोपसर्गान् उदीर्णान अध्यासितुम। तत् नालं वाइय-पित्तिय सेंभिय-सन्निवाइए नो जात ! आवाम् इच्छावः तव क्षणमपि विविहे रोगायके, परिस्सहोवसग्गे विप्रयोगम, तत आस्व यावत् तावत् आवां उदिण्णे अहियासेत्तए। तं नो खलु जाया! जीवावः ततः पश्चात आवयोः कालगतयोः अम्हे इच्छामो तुब्भं खणमवि विप्पयोगं, सतोः परिणतवयाः वर्द्रितकुलवंशतन्तुकार्ये तं अच्छाहि ताव जाया! जाव ताव अम्हे । निरवकाक्षः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात अनगारितां समाणेहिं परिणयवए, वढिकुल- प्रव्रजिष्यसि। वंसतंतकज्जम्मि निरव-यक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइहिसि।
है। इसमें लोह के यव चबाने होते हैं। यह बालू के कौर की तरह निःस्वाद है। यह महानदी गंगा में प्रतिस्रोत गमन जैसा है, यह महासमुद्र को भुजाओं से तैरने जैसा दुस्तर है। यह तीक्ष्ण कांटों पर चंक्रमण करने, भारी-भरकम वस्तु को उठाने और तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा है। जात! श्रमण निर्ग्रन्थ आधाकर्मी,
औदेशिक, मिश्रजात, अध्यवतर. पूति, क्रीत, प्रामित्य-उधार लिया गया, आछेद्य-छीना गया, भागीदार द्वारा अननुमत, सामने लाया गया, कान्तारभक्त, दुर्भिक्ष-भक्त, ग्लान-भक्त, वादलिका-भक्त, प्राभृतिक-भक्त, शय्यातरपिण्ड, राजपिंड, मूल-भोजन, कन्दभोजन, फल-भोजन, बीज-भोजन और हरित भोजन खा पी नहीं सकता। जात! तुम सुख भोगने योग्य हो, दुःख भोगने योग्य नहीं हो। तुम सर्दी, गर्मी, भूख
और प्यास तथा कीट, हिंस्र पश, दंशमशक, वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्निपातिक. विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा उीर्ण परीषह और उपसर्ग को सहन करने में समर्थ नहीं हा। जात हम क्षण भर के लिए भी तुम्हारा वियोग सहना नहीं चाहते इसलिए तुम तब तक रहो, जब तक हम जीवित हैं। उसके पश्चात हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी वय परिपक्व हो जाए. तुम कुल-वंश के तंतु कार्य से निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारिता में प्रवजित हो जाना।
भाष्य
१.सूत्र-१७७ शब्द-विमर्श
निर्ग्रन्थ प्रवचन-प्रवचन का अर्थ है शासन। भगवान महावीर के समय में जैनधर्म निर्गन्य प्रवचन के नाम से प्रख्यात था।
सत्य-सत्पुरुषा के लिए हितकर है इसलिए वह सत्य है-यह
अर्थ अभयदेव सूरि का है। आवश्यक चूर्णि में इसका दूसरा अर्थ भी मिलता है-यह सद्भूत-यथार्थ होने के कारण सत्य है।
केवलं-अद्वितीय। ऐसा हितकर दूसरा प्रवचन नहीं है इसलिए यह अद्वितीय है-यह चूर्णि की व्याख्या है।'
१. भ. वृ. १.१००/- सच्चेनि सद्भ्यो हितत्वान। २. आव. च. पृ. २४२-जथा सच्चं सद्भ्यो हितं सच्चं. सद्भूतं वा सच्चं । ३. भ. व. ०.१91- केवलं अद्वितीयम।
४. आय, च. पृ. २४२-केवलं अद्वितीयं एतदेवकं हितं नान्यत द्वितीय
प्रवचनमस्निा
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