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________________ भगवई २९५ श.९ : उ. ३३ : सू. १७८ पडिपुण्ण-निर्ग्रन्थ प्रवचन में ज्ञान दर्शन और चारित्र-तीनों का समन्वय है इसलिए यह प्रतिपूर्ण है। नेयाउए-नैर्यातृक, मोक्ष की ओर ले जाने वाला। आवश्यक चूर्णि में इसका अर्थ न्याय से अबाधित किया है। वृत्तिकार ने इसका शब्दार्थ नायक-मोक्ष गमक किया है। संसुन्द्र-हेतु आदि की कसौटी पर खरा उतरने वाला। सल्लगत्तणं-माया, निदान और मिथ्यादर्शन शल्य का कर्तन करने वाला। मुक्ति का मार्ग-आवश्यक चूर्णि में मुक्ति का अर्थ निस्संगता किया है। निर्याण मार्ग-सिद्धि क्षेत्र में जाने का उपाय। निर्वाण-आत्म-स्वास्थ्य का मार्ग, सकल कर्म निरपेक्ष सुख का मार्ग। अवितथ-तथ्य। प्रत्येक युग में अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करन वाला!' अविसंधि-अव्यवच्छिन्न। सिझंति......अंतं करेंति-इन पदों का अर्थ प्रस्तुत आगम के १.४७ के भाष्य में किया जा चुका है। आवश्यक चूर्णि में इन पदों का अर्थ तीन नयों से किया गया है। उनमें चूर्णिकार का अपना मत है और दो अन्य मतों को उद्धृत किया गया है। सिझंति--सिन्द्र होते हैं. सब प्रयोजन परिनिष्ठित हो जाते हैं। बुज्झंति-बुद्ध होते हैं, केवली हो जाते हैं। मुच्चंति-सब कर्मों के संग से मुक्त हो जाते हैं। परिनिव्वायंति-परिनिर्वृत-परम सुखी हो जाते हैं। सव्वदुक्खाणमंतं करेंति-सब शारीरिक और मानसिक दुःखों का अंत कर देते हैं। अन्य मत के अनुसार । सिज्झति-मोहनीय कर्म क्षय होने के कारण उनके सब प्रयोजन निष्ठित हो जाते हैं। कुछ आचार्यों के मतानुसार-सिझंति-अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों से संपन्न हो जाते है। बुज्झंति-अतिशय बोध से युक्त, विज्ञान युक्त हो जाते हैं। मुच्चंति-सब संगों से मुक्त हो जाते हैं। परिनिव्वायंति-उपशांत-प्रशांत हो जाते हैं। सव्वदुक्खाणमंतं करेंति-सब दुःखों से रहित हो जाते हैं। अहीव एगंतदिट्टीए-सर्प की आंखों में पलकें नहीं होती. दोनों पलक मिलकर एक पारदर्शी झिल्ली बन जाती है। वह झिल्ली आंखों के उपर मढ़ी रहती है। यही कारण है कि उसकी आंखें सदा खुली रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर संयम के प्रति होने वाली एकाग्र दृष्टि की सर्प की एकाग्र दृष्टि से तुलना की गई है। तुलना के लिए द्रष्टव्य उज्झयणाणि १०.३८ । __अहाकम्मिए......पायए वा-द्रष्टव्य ठाणं १/६२ तथा दसवआलियं ३/२ का टिप्पण। १७८. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमार: अम्बा- १.०८. क्षत्रियकुमार जमालिन माता-पिता अम्मापियरो एवं वयासी-तहा विणं तं पितरी एवमवादीत-तथापि तत अम्बतात! से इस प्रकार कहा-माता-पिता ! यह अम्मताओ! जणं तुब्भे ममं एवं यत् युवां माम् एवं वदधः-एवं खलु जात! वैसा ही है. जैसा आप कह रहे है-जात! बदह-एवं खलु जाया ! निग्गंथे पावयणे । नम्रन्थं प्रवचनं सत्यम अनुत्तरं केवलं तच्चैव यह निर्गन्थ प्रवचन सत्य, अनुनर सच्चे अणुत्तरे केवले तं चेव जाव यावत् प्रव्रजिष्यसि, एवं खलु अम्बतात! अद्वितीय यावत अगार से अनगारिता में पव्वइहिसि, एवं खलु अम्मताओ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनं कलीवानां कातराणां प्रवृजित हो जाना। निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरुषाणाम इहलोकप्रतिबद्धानां परलोक- माता-पिता' कलीब, कायर, कापुरुष, कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं पर- पराङ्मुखानां विषयतृषितानां दुग्नचरः । इहलोक से प्रतिबन्द्र, परलोक से पराङ्गख. लोगपरंमुहाणं विसयतिसियाणं दुर- प्राकृतजनस्य. धीरस्य निश्चितस्य व्यवसि- विषय की तृष्णा रखने वाले और णुचरे पागयजणस्स, धीरस्स तस्य नो खलु अत्र किंचित अपि दुष्कर प्राकृतजन-साधारण मनुष्य के लिए निच्छियस्स ववसियस्स नो खलु एत्थं कर्तुम. तत् इच्छामि अम्बतात! युवाभ्याम निग्रंथ प्रवचन आचरण करना दुष्कर है। किंचि वि दुक्करं करणयाए, तं अभ्यनुज्ञातः सन श्रमणस्य भगवतः धीर, कृतनिश्चय और व्यवसाय सम्पन्न इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् (उपाय- प्रवृत्त) के लिए उसका आचरण १. वही, पृ. २४२-न्यायन चरति नयायिक, न्यायाबाधिनमित्यर्थः । २. भ. वृ.१.१991-नायकं मोक्षगमकमित्यर्थः। ३. आव, चू, पृ. २४२..समस्नं सुलं संसुद्धं बहुविधचालणााहि पयालिन्जन। ४. वही, पृ.-२४२--निव्वाणं-निव्वनी आत्मस्वास्थ्यमित्यर्थः । ५. भ. वृ...2051-सकन्नकर्मविरहजसुखापायः। ६. आव. च. पृ. २४२. अवितथं-नथ्यं। १. भ. वृ.०2001-अवितह-कालान्तरेऽनपगतनथाविधाभिमनप्रकारम। ८. आ. च. पृ. २४२-२४३-सिज्झंति सिद्धा भवंति, परिनिष्ठिनार्थाः भवन्तीत्यर्थः, ते य बुज्झनि अन आह-बुज्झनि-बुद्धा भवंति, केवली भवतीत्यर्थः, एवं मच्चंति मुच्चंति: नाम सब्वकम्मादिसंगण मुक्ता भवंति, परिनिव्वायंनि परिनिव्व्या भवंति, परमसुक्षिणा भवतीत्यर्थः कवनी भवंतीत्यर्थः, सव्वदुक्याणं अंनं कांति सबसि सारीरमाणसाण दक्खाण अंतकरा भवति, वाच्छिण्णसव्वद्या भवतीत्यर्थः । अण्ण भणनि-सिन्हानि मोहनीयकवागणं निष्ठितार्थः भवंति। बुन्झनि कवली भवंति। मुञ्चति सब्बकम्गुणा, परिनिव्यानंति निव्वाणं गच्छनि एवं च सत्यदुक्माण थनं करतिनि। अण्ण पुण भणनि--सिन्धांति अणिमामहिमादिगिन्द्रिसम्पन्ना 'भवंति, बुज्झंति अतिसयबोधजुता भवंति विण्णाणयुना इत्यर्थः, मुनि मुक्ता भवंति सव्वसंगहिः परिणिव्वायंनि वसंतपयंता भवन्ति. सव्वदुक्माणमतं करति सव्वदुक्खरहिता भवति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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