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________________ श.९ : उ. ३३ : सू. १७८-१८२ भगवई २९६ अनगारितां प्रव्रजितम्। अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए॥ किंचित भी दुष्कर नहीं है। इसलिए मातापिता ! मैं चाहता हूं-तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं। १७९. तए णं तं जमालिं खत्तिय-कुमारं ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ १७९. क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति यदा नो शक्नुतः विषयानुलोमाभिश्च विषय के प्रति अनुरक्त बनाने वाले और विसयाणुलोमाहि य, विसयपडिकूलाहि विषयप्रतिकूलाभिश्च बहुभिः आख्यापना- विषय से विरक्त किन्तु संयम के विषय में य बहूहिं आघ-वणाहि य पण्णवणाहि य । भिश्च प्रज्ञापनाभिश्च संज्ञापनाभिश्च भय दिखाकर उद्वेग पैदा करने वाले बहुत सण्ण-वणाहि य विण्णवणाहि य आघ- विज्ञापनाभिश्च आख्यातुं वा प्रज्ञापयितुं वा आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और वेत्तए वा पण्णवेत्तए वा सण्णवेत्तए वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुं वा तदा अकामं विज्ञापन के द्वारा उसे आख्यात, प्रज्ञप्त विण्णवेत्तए वा, ताहे अकामाई चेव चैव जमालेः क्षत्रियकुमारस्य निष्क्रमणम् संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अन्वमन्यताम्। तब क्षत्रियकुमार जमालि को अनिच्छानिक्खमणं अणुमण्णित्था॥ पूर्वक निष्क्रमण की अनुज्ञा दे दी। १८०. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रिकुमारस्य पिता १८०. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कुमारस्स पिया कोइंबियपुरिसे सहावेइ, कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो एवम् अवादीत-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! क्षत्रियदेवाणुप्पिया! खत्तियकुंडग्गामं नयरं क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं साभ्यन्तरबाह्यकम् कुंडग्राम नगर के भीतर और बाहर पानी सब्भितर-बाहिरियं आसिय-सम्मज्जि- आसिक्त-सम्मर्जितोपलिप्तं यथा औप- का छिड़काव करो, झाड़, बुहार जमीन की ओवलितं जहा ओववाइए जाव पातिके यावत् सुगन्धवरगन्धगन्धिकं- सफाई करो, गोबर की लिपाई करो, जैसे सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य गन्धवर्तिभूतं कुरुथ च कारयथ च, कृत्वा च औपपातिक की वक्तव्यता यावत् प्रवर कारवेह य, करेता य कारवेत्ता य कारयित्वा च एनाम आज्ञप्लिका प्रत्यर्पयथ। सुरभि वाले गंध-चूर्णों से सुगंधित एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ते वि तहेव तेऽपि तथैव प्रत्यर्पयन्ति। गंधवर्ती तुल्य करो, कराओ। ऐसा कर पच्चप्पिणंति॥ और कराकर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने वैसा कर आज्ञा का प्रत्यर्पण किया। १८१. तए णं से जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता १८१. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने पुनः कुमारस्स पिया दोच्चं पि कोडु- द्वितीयमपि कौटुम्बिकपुरुषान शब्दयति, कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर बियपुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! क्षत्रियकुमार वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु-प्पिया! देवानुप्रियाः! जमालेः क्षत्रियकुमारस्य महार्थं जमालि का महान् अर्थ वाला, महान् जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महायं महाहं विपुलं निष्क्रमणाभिषेकम् मूल्य वाला, महान अर्हता वाला और महग्धं महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उपस्थापयत। ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः विपुल निष्क्रमण-अभिषेक उपस्थित उवट्ठवेह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तथैव यावत् उपस्थापयन्ति। करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही तहेव जाव उवट्ठवेंति॥ निष्क्रमण-अभिषेक उपस्थित किया। १८२. तए णं तं जमालिं खत्तिय-कुमारं ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ १८२. माता-पिता क्षत्रियकुमार जमालि को अम्मापियरो सीहासणवरंसि पुरत्था- सिंहासनवरे पुरस्तादभिमुखं निषादयतः, पूर्वाभिमुख कर प्रवर सिंहासन पर बिठाते भिमुहं निसीयावेंति, निसीया-वेत्ता निषाद्य अष्टशतेन सौवर्णिकानां कलशानाम् हैं, बिठाकर एक सौ आठ स्वर्ण-कलश, अट्ठसएणं सोवणियाणं कलसाणं अष्टशतेन रूप्यमयानां कलशानाम्, एक सौ आठ रजत-कलश, एक सौ आठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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