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भगवई
२९३ वदह-इमं च ते जाया! अज्जय-पज्जय- ते जात! आर्यक-प्रार्यक-पितृप्रार्यकगतं पिउपज्जयागए जाव पव्वइहिसि, एवं यावत् प्रव्रजिष्यसि एवं खलु अम्बतात! खलु अम्मताओ! हिरणे य, सुवण्णे य हिरण्यं च सुवर्णं च यावत् स्वापतेयम? जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए, चोर- अग्नि-स्वामिकं, चोरस्वामिकं, राजस्वासाहिए, रायसाहिए, मच्चुसाहिए, मिकं, मृत्युस्वामिकं, दायिकस्वामिकं, दाइयसाहिए, अग्गिसामण्णे, चोर- अग्निसामान्यं, चोरसामान्यं, राजसमान्यं, सामण्णे, रायसामण्णे, मच्चुसामण्णे, मृत्युसामान्यं, दायिकसामान्यं, अध्रुवम् दाइ-यसामण्णे, अधुवे, अणितिए, अनित्यम्. अशाश्वतं, पूर्वं वा पश्चात् वा असासए, पुद्वि वा पच्छा वा। अवश्यविप्रहातव्यं भविष्यति, सः क एषः अवस्सविप्पजहियव्वे भविस्सइ, से जानाति अम्बतात! कः पूर्वं गमने, कः केस णं जाणइ अम्मताओ! के पुव्वि पश्चात् गमने? तत् इच्छामि अम्बतात! गमणयाए, के पच्छा गमण-याए? तं युवाभ्याम् अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अब्भणुण्णाए समणे समणस्स भगवओ अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम्। महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए॥
श.९ : उ. ३३ : सू. १७६,१७७ प्रपितामह, प्रप्रपितामह से प्राप्त हिरण्य यावत् अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! यह हिरण्य, सुवर्ण यावत् वैभवशाली द्रव्य अग्नि साधित हैं-अग्नि जला सकती है, चोर साधित हैं-चोर चुरा सकते हैं, राज साधित हैं-राजा अधिकृत कर सकता है. मृत्यु साधित है, मृत्यु उससे वंचित कर सकती है। दायाद साधित हैं-भागीदार विभाजित कर सकते हैं। अग्नि सामान्य-अग्नि का स्वामित्व है, चोर सामान्य-चोर का स्वामित्व है, राज-सामान्य-राज का स्वामित्व है. मृत्यु सामान्य मृत्यु का स्वामित्व है और दायाद सामान्यभागीदार का स्वामित्व है। अध्रुव, अनियत और अशाश्वत हैं। पहले या पीछे, अवश्य छोड़ना है। माता-पिता! कौन जानता है-पहले कौन जाएगा? पीछे कौन जाएगा? इसलिए माता-पिता! मैं चाहता हूं-तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हो जाऊं।
१७७. तए णं तं जमालिं खत्तिय-कुमारं ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बातातः १७७. 'माता-पिता क्षत्रियकुमार जमालि को
अम्मताओ जाहे नो संचाएंति यदा नो शक्नोति विषयानुलोमाभिः बहुभिः विषय के प्रति अनुरक्त बनाने वाले बहुत विसयाणुलोमाहिं बहूहिं आघवणाहि य । आख्यापनाभिश्च प्रज्ञापनाभिश्च संज्ञा- आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य पनाभिश्च विज्ञापनाभिश्च आख्यातुं वा विज्ञापन के द्वारा उसे आख्यात, प्रज्ञप्त, विण्णवणाहि य, आघवेत्तए वा प्रज्ञापयितुं वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुंवा, संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए पण्णवेत्तए वा सण्णवेत्तए वा विण्णवेत्तए तदा विषयप्रतिकूलाभिः संयम-भयोवेजन- तब विषय से विरक्त किन्तु संयम के वा, ताहे विसयपडिकूलाहिं संजम- करोभिः प्रज्ञापनाभिः प्रज्ञापयन एवम् विषय में भय दिखाकर उद्धेग पैदा करने भयुव्वेयणकरीहिं पण्णवणाहिं पण्णवे- अवादीत्-एवं खलु जात! निर्ग्रन्थं प्रावचनं वाले प्रज्ञापन के द्वारा प्रज्ञापना करते हुए माणा एवं वयासी-एवं खलु जाया! सत्यम अनुत्तरं केवलं प्रतिपूर्ण नैतृकं इस प्रकार बोले-जात! यह निर्ग्रन्थ निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले । संशुद्धं शल्यकर्त्तनं सिद्धिमार्ग मुक्तिमार्ग प्रवचन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे निर्याणमार्गम् अवितथम् अविसंधि पूर्ण, नैर्यात्रिक, मोक्ष तक पहुंचाने वाला, सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे सर्वदुःखपहीणमार्गम. अत्र स्थिताः जीवाः संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धि निव्वाण-मग्गे अवितहे अविसंधि सव्व- सिध्यन्ति 'बुज्झंति' मुञ्चन्ति परिनिर्वान्ति का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, मोक्ष का मार्ग, दुक्खप्पहीणमग्गे, एत्थं ठिया जीवा । सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्वन्ति।
शांति का मार्ग, अवितथ, अविच्छिन्न और सिझंति बुज्झति मुच्चंति परि- अहेरिव एकान्तदृष्टिकः, क्षुरस्य इव समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग है। इस निव्वायंति सव्व-दुक्खाणं अंत करेंति।। एकान्तधारा, लोहमया यवाः चर्वितव्या, निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव सिद्ध, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंत- वालुकाकवलस्य इव निःस्वादा, गंगा वा प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों धाराए, लोहमया जवा चावे-यव्वा, महानदी प्रतिस्रोतोगमनं, महासमुद्रः वा का अन्त करते हैं। संयम सांप की भांति वालुयाकवले इव निस्साए, गंगा वा भुजाभ्यां दुस्तरः, तीक्ष्णं क्रमितव्यं, गुरुकं एकान्त (एकाग्र) दृष्टि द्वारा साध्य है। महानदी पडिसोयंगमणयाए, महासमुद्दो लम्बितव्यम्, असिधारकं व्रतं चरितव्यम्। क्षुर की भांति एकान्त धार द्वारा साध्य
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