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________________ श. ९ : उ. ३३ : सू. १७४-१७६ ૨૧૨ भगवई समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स प्रव्रजितुम्। समान दुःखानुबंधी और सिद्धि गमन के अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ विघ्न हैं। माता-पिता! यह कौन जानता अणगारियं पव्वइत्तए॥ है-कौन पहले जाएगा? कौन पीछे जाएगा? माता-पिता ! इसलिए मैं चाहता हूं-तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हो जाऊं। भाष्य १.सूत्र-१७४ गंधि' उच्छवास का विशेषण किया है। शब्द-विमर्श लहुस्गा-लघु-स्वभाव वाले। दुरुय-विकृत। वृत्तिकार ने इसका अर्थ दुरूप, विरूप किया कलमल-शरीर में होने वाला अशुभ द्रव्य। है।' यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है दुर्गंध युक्त, मलमूत्र युक्त परिक्लेश-मानसिक आयास। कर्दम। किच्छदुक्ख-कष्टप्रद शारीरिक आयास। मयगंधुस्सास.......उव्वेयणगा-मृतशरीर की गंध के तुल्य चुडल्लिव-प्रदीप्त तृण पूलिका के समान। उच्छवास और निःश्वास से उद्वेग पैदा करने वाले। वृत्तिकार ने 'मृत ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ १७५. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि अम्मापियरो एवं वयासी- इमे य ते एवम् अवादीत्-इदं च ते जात! आर्यक- से इस प्रकार कहा-जात! तुम्हारे जाया! अज्जय-पज्जय-पिउपज्जयागए प्रार्यक-पितृप्रार्यकागतं सुबहु हिरण्यं च, पितामह (दादा) प्रपितामह (परदादा) सुबहू हिरण्णे य, सुवण्णे य, कंसे य, सुवर्णं च, कांस्यं च, दूष्यं च, विपुलधन- और प्र-प्रपितामह (परदादा के पिता) से दूसे य, विउलधण-कणग-रयण-मणि- कनक-रत्न-मणि-मौक्तिक-शङ्ख-शिला- प्राप्त यह बहुत सारा हिरण्य, सुवर्ण, मोत्तिय-संख - सिलप्पवालर-त्तरयण- प्रवालरक्तरत्न-सतसार-स्वापतेयम्, अलं कांस्य, दूष्य (बहुमूल्य वस्त्र) विपुल संतसार - सावएज्जे, अलाहि जाव यावत् आसप्तमात् कुलवंशात् प्रकामं दातुं, वैभव-कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, आसत्तमाओ कुल-वंसाओ पकामं दाउं, प्रकामं भोक्तुं, परिभाजयितुं तत् अनुभव शंख, मेनसिल, प्रवाल, लालरत्न और पकामं भोत्तुं, परिभाएउं, तं अणुहोहि तावत् जात! विपुलान् मानुष्यकान् ऋद्धि- श्रेष्ठसार-इन वैभवशाली द्रव्यों से, जो ताव जाया! विउले माणुस्सए इड्डि सत्कार-समुदयान्, ततः पश्चात् अनुभूत- सातवीं पीढ़ी तक प्रकाम देने के लिए, सक्कार-समुदए, तओ पच्छा अणुहूय- कल्याणः, वर्द्धिकुलवंशतन्तुकार्ये निर. प्रकाम भोगने और बांटने के लिए समर्थ कल्लाणे, वड्डियकुलवंसतंतुकज्ज-म्मि वकाङ्कः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य हैं इसलिए जात! तुम मनुष्य संबंधी निरवयक्खे समणस्स भगवओ अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारिता विपुल ऋद्धि, सत्कार और समुदय का महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता प्रव्रजिष्यसि। अनुभव करो। कुलवंश के तंतु कार्य से अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि। निरपेक्ष हो जाओ, उसके पश्चात् कल्याण का अनुभव कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुंड हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हो जाना। भाष्य १.सूत्र-१७५ अज्जय-पज्जय-पिउपज्जय-पितामह, प्रपितामह, प्रप्रपितामह। ये देशी शब्द हैं।" १७६. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बा- १७६. क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता अम्मापियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं पितरौ एवम् अवादीत्-तथापि तत् से इस प्रकार कहा-यह वैसा ही है, जैसा अम्मताओ! जण्णं तुब्भे ममं एवं अम्बतात! यत् युवां माम् एवं वदथः-इदं च आप कह रहे हैं-जात! पितामह, १. भ. वृ.९/१७४-इह च दूरूपं-विरूपं। ३. वही, ९/१७४-परिक्लेशेन-महामानसायासेन कृच्छदुःखेन च-गाढ़ २. वही, ९/१७४-मृतस्येव गंधो यस्य स मृतगन्धिः स चासावुच्छवासश्च शरीरायासेन ये साध्यन्ते-वशीक्रियन्ते ये ते तथा। मृतगन्ध्युच्छ्वासस्ते नाशुभनिःश्वासेन चोद्वेगजनका-उद्वेगकारिणो जनस्य ४. देखें-देशी शब्दकोश। ये ते तथा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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