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भगवई
श.९ : उ. ३३ : सू. १७३,१७४ विलास-चिट्ठियविसारदाओ, अविकल- शीलशालिन्यः विशुद्धकुलवंशसन्तानतन्तु- मित और मधुर बोलने वाली, विहसन, कुल-सीलसालिणीओ, विसुद्धकुलवंस- वर्द्धन-प्रगल्भोद्भवप्रभाविन्यः मनोनुकूल- विप्रेक्षण (कटाक्ष), गति, विलास और संताणतंतुवद्धणप्पगब्भुब्भवपभाविणीओ, हृदयेष्टाः, अष्ट तव गुण वल्लभाः उत्तमाः, चेष्टा में विशारद, समृद्ध कुल वाली और मणाणु-कूलहियइच्छियाओ, अट्ठ तुज्झ नित्यं भावानुरक्तसर्वाङ्गसुन्दर्यः। तत! शीलशालिनी, विशुद्ध, कुलवंश की गुणवल्लहाओ उत्तमाओ, निच्चं भुक्ष्व तावत जात ! एताभिः सार्धं विपुलान् संतान रूपी तंतु की वृद्धि के लिए गर्भ के भावाणुरत्तसव्वंगसुंदरीओ। तं भुंजाहि ताव मानुष्यकान् कामभोगान, ततः पश्चात् उद्भव में समर्थ, मनोनुकूल और हृदय से जाया! एताहिं सद्धिं विउले माणुस्सए भुक्तभोगी विषय-विगतव्यवच्छिन्नकुतू- इष्ट, उत्तम और नित्य भाव से अनुरक्त कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी हलः आवयोः कालगतयोः सतोः सर्वांग सुंदरियां हैं इसलिए जात! तुम विसयविगय-वोच्छिण्ण-को उहल्ले परिणतवयाः वर्द्रितकुल-वंशतंतुकार्ये निर- इनके साथ विपुल मनुष्य संबंधी कामअम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं वकासः-श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य भोगों का भोग करो। उसके पश्चात् परिणयवए वड्डियकुल-वंसतंतुकज्जम्मि अन्तिकं मुण्डःभूत्वा अगारात् अनगारितां भुक्तभोगी तथा विषयों के प्रति तुम्हारा निरवयक्खे समणस्स भगवओ प्रव्रजिष्यसि।
कौतुहल विगत और व्युच्छिन्न हो जाए. महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता
हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी अवस्था अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि॥
परिपक्व हो जाए. तुम कुलवंश के तंतु कार्य से निरपेक्ष हो जाओ तब तुम श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार
से अनगारिता में प्रवजित हो जाना।
भाष्य १.सूत्र-१७३
अविकल कुल-ऋद्धि परिपूर्ण कुल। शब्द-विमर्श
पगब्भुन्भवपभाविणीओ-प्रकृष्ट गर्भ को उत्पन्न करने की विलास-नेत्र विकार।
सामर्थ्य वाली।
१७४. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बा- 174. 'क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता अम्मापियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं पितरौ एवम् अवादीत्-तथापि तत् से इस प्रकार कहा-माता-पिता! यह अम्मताओ! जण्णं तुब्भे मम एयं वदह- अम्बतात! यत् युवां माम् एवं वदथः-इमाः वैसा ही है, जैसा आप कह रहे हैं-जात! इमाओ ते जाया! विपुलकुलबालियाओ। तेजात ! विपुलकुलबालिकाः यावत् प्रव्रजि- ये तुम्हारी आठ पत्नियां विशाल कुल की जाव पव्वइहिसि, एवं खलु अम्मताओ! ष्यसि, एवं खलु अम्बतात! मानुष्यकाः बालिकाएं हैं यावत् तुम अगार से माणुस्सगा कामभोगा उच्चार- कामभोगाः उच्चार-प्रस्रवण-क्ष्वेल-शिंधा- अनगारिता में प्रवजित हो जाना। मातापासवण-खेल - सिंघाणग - वंत-पित्त- णक - वान्त - पित्त - पूय - शुक्र शोणित- पिता! ये मनुष्य संबंधी कामभोग, मल, पूय · सुक्क · सोणिय · समुब्भवा, समुद्भवाः, अमनोज्ञ ‘दुरुय'-मूत्र-पूतिक- मूत्र, कफ, नाक के मैल, वमन, पित्त, अमणुण्णदुरुय · मुत्त-पूइय-पुरीस- पुरीषपूर्णाः- मृतगन्धोच्छ्वास-अशुभनिः मवाद, शुक्र और शोणित से समुत्पन्न पुण्णा, मयगंधुस्सास . असुभनि- श्वासोवेजनकाः, बीभत्साः, अल्प- होते हैं। अमनोज्ञ, विकृत और कुथित मल स्सासउव्वेयणगा, बीभच्छा, अप्प- कालिकाः, लघुस्वकाः, 'कलमल अधि- मूत्र से परिपूर्ण हैं। मृतक की गंध जैसे कालिया, लहुसगा, कलम-लाहिवास- वासदुक्खाः बहुजनयाधारणाः, परिक्लेश- उच्छवास और अशुभ निःश्वास से उद्वेग दुक्खा बहुजणसाहारणा, परिकिलेस- कृच्छदुःखसाध्याः अबुधजननिसेविताः, पैदा करने वाले, बीभत्स, अल्पकालिक, किच्छदुक्खसज्झा, अबुहजणणिसेविया, सदा साघुगर्हणीयाः, अनन्तसंसारवर्द्धनाः, स्वल्पसार सहित (तुच्छ), जठर में होने सदा साहुगरहणिज्जा, अणंतसंसार- कट्रकफलविपाकाः, 'चुडल्लि' इव अमुच्य. वाले मल की अवस्थिति से दुःखद, वद्धणा, कडुगफलविवागा चुडल्लिव मानाः, दुक्खानुबन्धिनः सिद्धिगमन- बहुजनसाधारण-सर्वसुलभ, महान अमुच्चमाण, दुक्खाणुबंधिणो सिद्धि- विघ्नाः। सः कः एषः जानाति अम्बतात! मानसिक और शारीरिक कष्ट साध्य, गमणविग्या। से केस णं जाणइ कः पूर्वं गमने कः पश्चात् गमने? तम् अबुधजनों के द्वारा आसेवित, साधु-जनों अम्मताओ! के पुट्वि गमणयाए ? के इच्छामि अम्बतात ! युवाभ्याम् अभ्यनुज्ञातः के द्वारा सदैव गर्हणीय, अनन्त संसार को पच्छा गमणयाए? तं इच्छामि णं सन् श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं बढ़ाने वाले, कटु फल-विधाक वाले, इन्हें अम्मताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए मुण्डः भूत्वा अगारात अनगारितां न छोड़ने पर ये प्रदीप्त तृण पूलिका के १. भ. वृ.../१७३-प्रगल्भाः-प्रकृष्टगर्भास्तेषां यः उद्भवः संभूतिस्तत्र यः प्रभावः--सामर्थ्य स यासामस्ति नाः।
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