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________________ श. ९ : उ. ३३ : सू. १७२, १७३ १७२. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे अम्मापियरो एवं वयासी- तहा वि णं तं अम्मताओ! जण्णं तुब्भे ममं एवं वदह- इमं च णं ते जाया ! सरीरगं तं चेव जाव पव्वइहिसि एवं खलु अम्मताओ ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं, विविहवाहिसयसंनिकेतं, अट्टिय कट्टिय छिराण्हारुजालओणन्द्र-संपिणन्द्धं, मट्टियभंडं व दुब्बलं, असुइसकिलिट्टं, अणिट्ठवियसव्वकालसंठप्पयं, जराकुणिम सडण पडण जज्जरघरं व विद्धंसणधम्मं, पुवि वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियव्वं भविस्सा | से केस णं जाणइ अम्मताओ ! के पुठिंव गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइत्तए ॥ १. सूत्र - १७२ शब्द विमर्श अट्ठियकछुट्टिय-कठिनता के साधर्म्य से अस्थि की तुलना काठ से की गई है। ' १७३. तए णं तं जमालिं खत्तिय - कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी- इमाओ य ते जाया! विपुलकुल- बालियाओ कलाकुसलसव्व-काल- लालिय- सुहोचियाओ, मह-वगुणजुत्त निउणविणओवयारपंडियवियक्खणाओ, मंजुल मिय - महुरभणिय विहसिय विप्पेक्खिय गति मनुष्य का शरीर अस्थियों के ढांचे पर टिका हुआ है। आयुर्वेद में अस्थि संस्थान को शरीर का सार और आधार कहा गया है। आधारश्च तथा सारः कायेस्थीनि बुधा जगुः आभ्यन्तरगतः सार, आधारो भूरुहां यथा । शिरा - रक्तवहा नाड़ी, जो शरीर की कोशिकाओं से रक्त को वापस हृदय तक ले जाती है। - ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बापितरौ एवम् अवादीत् तथा अपि तत् अम्बतात ! यत् युवां माम् एवं वदथः इदं च ते जात ! शरीरकं तच्चैव यावत् प्रव्रजिष्यसि एवं खलु अम्बतात ! मानुष्यकं शरीरं दुक्खायतनं विविधव्याधिशतसंनिकेतम्, अस्थिककाष्ठोत्थितं, शिराण्हारुजाल - उपनद्धसंपिनद्धं, मृतिकाभाण्डम् इव दुर्बलम्, अशुचिसंक्लिष्टम्, अनिष्ठापित सर्वकालसंस्थाप्यतां जराकुणप जर्जर-गृहम् इव शटन-पतनविध्वसनधर्माणं, पूर्व वा पश्चात् वा अवश्यविप्रहातव्यं भविष्यति । सः कः एषः जानाति अम्बतातः! कः पूर्वं गमने कः पश्चात् गमने ? तत् इच्छामि युवाभ्याम् अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम् । २. शार्ङ्गधर संहिता पृ. ८९। ३. वही. पृ. ८७1 २९० भाष्य Jain Education International १. भ. वृ. ९ १७२ - अडियकट्टिय ति अस्थिकान्येव काष्ठानि काठिन्य साश्रम्यत्तिभ्यो यदुत्थितं तत्तथा । स्नायु - स्नायुओं को शरीर की मांसपेशियों, अस्थियों, मेदस् और संधियों का बन्धन कहा जाता है। ये स्नायु या बंधन शिराओं की अपेक्षा अधिक मजबूत होते हैं स्नायवो बंधनं प्रोक्ता, देहे मांसास्थिमेदसाम् । संधीनामपि यत्तास्तु, शिराभ्यः सुदृढाः मताः । ' अणिविय - अनिष्ठापित, जो समाप्त नहीं होता। संप्पया-संस्थाप्यता, शरीर के लिए स्थापित, निर्धारित कार्य। * ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ एवम् अवादीत् - इमाः च ते जात! विपुलकुलबालिकाः कलाकुशल सर्वकाल ललितसुखोचिताः मार्दव-गुणयुक्त-निपुणविनयोपचारपण्डित-विचक्षणाः, मञ्जुलमितमधुरभणित- विहसित- विप्रेक्षित-गतिविलासचेष्टित- विशारदाः, अविकलकुल भगवई १७२. क्षत्रियकुमार जमालि माता-पिता से इस प्रकार बोला- माता-पिता! यह वैसा ही है, जो तुम मुझे कह रहे हो जात! तुम्हारा यह शरीर प्रविशिष्ट रूप वाला है यावत् अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! यह मनुष्य का शरीर दुःख का आयतन है. विविध प्रकार की सैकड़ों व्याधियों का संनिकेत (घर) है। अस्थिरूपी काठ के ढांचे पर खड़ा हुआ है, शिरा और स्नायुओं के जाल से अतिवेष्टित है, मिट्टी के पात्र के समान दुर्बल है, अशुचि से संक्लिष्ट है, जिसका कृत्यकार्य सर्वकाल चलता है, कभी पूरा नहीं होता, बुढ़ापे से निष्प्राण बना हुआ जर्जर घर सड़न, पतन और विध्वंसधर्मा है, पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। माता-पिता! कौन पहले जाएगा? कौन पश्चात् जाएगा? मातापिता! इसलिए मैं चाहता हूं-तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं। जराकुणिमजज्जरघर - बुढ़ापे के कारण शव जैसे शरीर के लिए "जरा कुणप का प्रयोग किया गया है। १७३. क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता ने इस प्रकार कहा जात! ये तुम्हारी आठ गुणवल्लभ पत्नियां, जो विशाल कुल की बालिकाएं, कलाकुशल, सर्वकाल - लालित, सुख भोगने योग्य, मार्दव गुण से युक्त, निपुण, विनय के उपचार में पण्डित और विचक्षण, मनोरम, ४. भ वृ. ९/१०२ - अनिष्ठापिता-असमापिता सर्वकालं सदा संस्थाप्यता तत्कृत्यकरणं यस्य स तथा । ५. वही, ९/१७२ - जरा कुणपश्च- जीर्णनाप्रधानशवो जर्जरगृहं च जोगिह समाहारद्वन्द्वाज्जराकुणपजर्जरगृहं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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