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भगवई
१७०. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे अम्मपियरो एवं वयासी- तहा वि णं तं अम्मताओ! जण्णं तुब्भे मम एवं वदह - तुमंसि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इट्टे कंते तं चेव जाव पव्वइहिसि एवं खलु अम्मताओ! माणुस्सए भवे अणेगजाइ जरा मरण रोग सारीरमाणसपकाम दुक्खवेयण वसणसतोववाभिभूए अधुवे अणितिए असासए संझब्भरागसरिसे जल- बुब्बुदसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे सुविणदंसणोवमे विज्जुलयाचंचले अणिच्चे सडणपडण- विद्वंसण धम्मे, पुव्वि वा पच्छा वा अवस्स - विप्पजहियव्वे भविस्सर, से केस णं जाणइ अम्मताओ ! के पुव्वि गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ।
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१७१. तए णं तं जमालिं खत्तिय कुमारं अम्मापयरो एवं वयासी- इमं च ते जाया ! सरीरगं पविसिगुरूवं लक्खणवंजण-गुणोववे उत्तमबल-वीरिय सत्तत्तं विण्णाणवियक्खणं ससोहग्गगुणसमूि अभिजाय महखमं विविह वाहि रोगरहियं, निरुवहयउदत्त - लट्ठ - पंचिंदियपडुं पढमजोव्वणत्थं अणेग- उत्तमगुणेहिं संजुत्तं तं अणुहोहि ताव जाया ! नियगसरीररूव-सोहग्गजोव्वणगुणे, तओ पच्छा अणुभूय नियगसरीररूव - सोहग्ग- जोव्वणगुणे अम्हेहि कालगएहिं समाणेहिं परिणयवए वड्डियकुल- वंसतंतुकज्जम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि ॥
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ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बापितरौ एवम् अवादीत्-तथाऽपि तत् अम्बतात ! यत् युवां माम् एवं वदथः-त्वम् असि जात! अस्माकम् एकः पुत्रः इष्टः कान्तः तत् चैव यावत् प्रव्रजिष्यसि एवं खलु अम्बतातः! मानुष्यकः भवः अनेकजाति जरा मरण रोग शरीर मानसप्रकामदुःखवेदनव्यसनशतोपद्र - वाभिभूतः अध्रुवः अनित्यः अशाश्वतः संध्याभ्ररागसदृशः जलबुदबुदसमानः कुशाग्रजलबिन्दुसन्निभः स्वप्नदर्शनोपमः विद्युत्लताचञ्चलः अनित्यः शटन पतन- विध्वंसनधर्मा, पूर्वं वा पश्चात् वा अवश्यविप्रहातव्यः भविष्यति, सः कः एषः जानाति अम्बतातः ! कः पूर्वं गमने, कः पश्चात् गमने ? तत् इच्छामि अम्बतात ! युवाभ्याम्
अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितम् ।
ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ एवम् अवादीत् इदं च ते जात! शरीरकं प्रविशिष्टरूपं लक्षण व्यञ्जन - गुणोपपेतम् उत्तमबल-वीर्यसत्वयुक्तं विज्ञातविचक्षणं ससौभाग्यगुणसमुच्छ्रितम् अभिजातमहत्क्षमं विविधव्याधिरोगरहितं, निरुपहतउदा-लष्ट-पंचेन्द्रिय- पटुं प्रथमयौवनस्थं अनेकोत्तमगुणैः संयुक्तं, तत् अनुभव तावत् जात! निजकशरीररूप-सौभाग्य-यौवनगुणान्, ततः पश्चात् अनुभूय निजकशरीररूप-सौभाग्य-यौवन-गुणान् अस्मत्सु कालगतेषु सत्सु परिणतवयाः वर्द्धित - कुलवंशतन्तुकार्ये निरवकाङ्क्षः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यसि ॥
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श. ९ : उ. ३३ : सू. १७०,१७१ १७०. क्षत्रियकुमार जमालि माता पिता से इस प्रकार बोला- माता-पिता! यह वैसा ही है जो तुम मुझे यह कह रहे हो - जात ! तुम हमारे एक पुत्र इष्ट कांत यावत् प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! यह मनुष्य का भव अनेक जन्म, जरा, मरण, रोग, शारीरिक और मानसिक प्रकाम दुःखों के वेदन, सैकड़ों कष्टों और उपद्रवों से अभिभूत, अध्रुव, अनियत, अशाश्वत, संध्या के अभ्रराग के समान, जल बुदबुद के समान, कुश की नोक पर टिकी हुई जलबिंदु के समान, स्वप्न-दर्शन के समान और विद्युल्लता की भांति चंचल और अनित्य है, सड़न, पतन और विध्वंसधर्मा है। पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। माता-पिता! कौन जानता है - कौन पहले जाएगा? कौन पश्चात् जाएगा? माता-पिता ! इसलिए मैं चाहता हूं- तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड हो अगार से अनगारिता में प्रब्रजित हो जाऊं।
१७९. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा जात! तुम्हारा यह शरीर प्रविशिष्ट रूप, लक्षण, व्यंजन और गुण से उपेत, उत्तम बल, वीर्य और सत्व से युक्त, विज्ञान से विचक्षण, सौभाग्य सहित गुण से उन्नत, अभिजात और महान् क्षमता वाला, विविध व्याधि और रोग से रहित, उपपात रहित, उदात्त, मनोहर और पटु पांच इन्द्रियों से युक्त, प्रथम यौवन में स्थित और अनेक गुणों से संयुक्त है इसलिए हे जात! तुम अपने शरीर के रूप, सौभाग्य और यौवन गुणों का अनुभव करो। उसके पश्चात्- अपने शरीर के रूप, सौभाग्य और यौवन गुणों का अनुभव करने के पश्चात् हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी अवस्था परिपक्व हो जाए, कुलवंश के तंतु से निरपेक्ष हो जाओ तब तुम श्रमण भगवान महावीर के पास मुंड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना।
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