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श. ९ : उ. ३३ : सू. १६९
१६९. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गय सीयलजलविमलधारपरिसिच्चमाण
सफुसिएणं
निव्वावियगायलट्ठी, उक्खेवय-तालि यंटवीयणगजणियवाएणं, अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी रायमाणी कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी- तुमं सि णं जाया! अम्हं एगे पुट्टे कंते पिए मणुणे मणामे थेज्जे वेसासिए संमए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणब्भूए जीविऊसविए हिययनंदिजणणे उंबरपुष्कं पिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग ! पुणपासणयाए ? तं नो खलुजाया! अम्हे इच्छामो तुब्भं खणमवि विप्पयोगं, तं अच्छाहि ताव जाया! जाव ताव अम्हे जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवए वड्डियकुलवंसतंतुकज्जम्मि निरव यक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि ॥
१. सूत्र - १६९ शब्द-विमर्श
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ततः सा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य माता ससम्भ्रमापवर्त्तितया त्वरितं काञ्चनभृङ्गारमुखविनिर्गत शीतलजलविमलधारापरिषिच्यमान निर्वापितगात्रयष्टिः उत्क्षेपक तालवृन्त वीजनकजनितवातेन, स्पृशता अन्तःपुरपरिजनेन आश्वासिता सती रुदती क्रन्दती शोकमानी विलपति जमालिं क्षत्रियकुमारम् एवम् अवादीत्-त्वम् असि जातः अस्माकम् एकः पुत्रः इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः 'मणामे' स्थैर्यः वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः अनुमतः भाण्डकरण्डक समानः रत्नः रत्नभूतः जीवितोत्सविकः हृदयानन्दिजनकः उदुम्बरपुष्पम् इव दुर्लभः श्रवणे, 'किमङ्ग' पुनः दर्शने ? तत् नो जात! आवाम् इच्छावः तव क्षणमपि विप्रयोगम् तत् आस्व तावत् जात! यावत् आवां जीवावः ततः पश्चात् आवयोः कालगतयोः सतोः परिणतवयाः वर्धितकुलवंशतन्तुकार्ये निरवकाङ्क्ष- श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यसि ।
ओवत्तया - वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप किए हैं- १. अपवर्तिका २. अपवर्तिता । '
उक्खेवगं बांस से बना हुआ पंखा, जिस दण्डे का मध्य भाग मुट्ठी से पकड़ा जाता है।
तालियंट-ताड़ के पत्रों से बना हुआ पंखा । वृत्तिकार ने इसका दूसरा अर्थ किया है-ताड़पत्र के आकार वाला चर्ममय पंखा ।
वीयणग- बांस से बना हुआ पंखा । इसका दण्ड भीतर से पकड़ा १. भ. वृ. ९ / १६९ - अपवर्त्तयति-क्षिपति या सा तथा तया ससंभ्रमापवर्त्तिकया चेदयति गम्यते..... अथवा ससंभ्रमापवर्त्तितया ससंभ्रमक्षिमया ।
२.
वही ९ / १६९ - उत्क्षेपको - वंशदनादिमयो मुष्टिग्राह्यदण्डमध्यभागः तालवृन्तं - तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं तत्पत्रच्छोट इत्यर्थः तदाकारं वा चर्मवीजनकं तु वंशादिमयमेवान्तग्रह्यदण्डं एतैर्जनितो यो वातः स तथा तेन ।
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भाष्य
जाता है।
भगवई १६९. संभ्रम और त्वरा के साथ चेटिका द्वारा डाली गई सोने की झारी के मुंह से निकली शीतल जल की निर्मल धारा के परिसिंचन से क्षत्रियकुमार जमालि की माता की गात्र यष्टि में शीतलता व्याप गई। उत्क्षेपक और तालवृंत के पंखों से उठने वाली जलमिश्रित हवा के संस्पर्श से तथा अंतःपुर के परिजनों द्वारा वह आश्वस्त हुई। वह रोती, कलपती, आंसू बहाती, शोक करती और विलपती हुई क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार बोली- जात! तुम हमारे एकमात्र पुत्र इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान हो। तुम रत्न, रत्नभूत ( चिन्तामणि आदि रत्न के समान) जीवन उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाले हो। तुम उदुम्बुर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ हो फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या?
जात! हम क्षणभर भी तुम्हारा वियोग सहना नहीं चाहते इसलिए जात! तुम तब तक रहो, जब तक हम जीवित हैं। उसके पश्चात् जब हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी वय परिपक्व हो जाए, तुम संतान रूपी तंतु को बढ़ाने के कार्य से निरपेक्ष हो जाओ, तब श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो
जाना।
इ "समाणे- द्रष्टव्य भगवती २ / ५२ का भाष्य । सफुसिय-उदक बिन्दु सहित ।
जीविऊसविए-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- १. जीवन में उत्सव २. जीवन में उत्सव के समान । *
उंबरपुष्पं-पासणाए - वृत्तिकार के अनुसार उदुम्बर का पुष्प अलभ्य होता है इसलिए उसकी उपमा दी गई है। "
कुलवंश - संतान | तंतु दीर्घत्व के साधर्म्य से कुलवंश को तंतु कहा गया है।
३. भ. वृ. ९ / १६९ - सफुसिएणं सोदकबिन्दुना ।
४. वही, ९ / १६९ - जीवितुमुत्सूते प्रसूत इति जीवितोत्सवः स एव जीवितोत्सविकः जीवितविषये वा उत्सवो महः स इव यः स जीवितोत्सविकः ।
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५. वही, ९ / १६९ - उदुम्बरपुष्पं ह्यलभ्यं भवत्यतस्तेनोपमानम् । ६. वही. ९ / १६९ - कुलवंशः संतानः स एव तन्तुर्दीर्घत्वसाधर्म्यान् कुलवंशनंतुः ।
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