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भगवई
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श. ९ : उ. ३३ : सू. १६७,१६८ १६७. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बा- १६७. वह क्षत्रियकुमार जमालि माता-पिता
अम्मापियरो दोच्चं पि एवं वयासी-एवं पितरौ द्वितीयम् अपि एवम् अवादीत-एवं से दूसरी बार इस प्रकार बोला-माताखलु मए अम्मताओ! समणस्स खलु अम्बतातः श्रमणस्य भगवतः महा- पिता! मैंने श्रमण भगवान महावीर के भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे वीरस्य अन्तिके धर्मः निशान्तः, सः अपि पास धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, च मया धर्मः इष्ट, प्रतीष्टः अभिरुचितः। प्रतीप्सित और अभिरुचित है। मातापडिच्छिए, अभि-रुइए। तए णं अहं ततः अहं अम्बतात! संसारभयोद्विग्नः, पिता! मैं संसार के भय से उद्विग्न और अम्मताओ! संसारभउन्विग्गे, भीते भीतः जन्म-मरणेन, तत् इच्छामि अम्ब- जन्म-मरण से भीत हूं। माता-पिता! मैं जम्मण-मरणेणं, तं इच्छामि णं अम्म. तात! युवाभ्यां अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य चाहता हूं-आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण ताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा भगवान महावीर के पास मुण्ड होकर समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं । अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम्।
अगार से अनगारिता में प्रवजित होऊ। मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए॥
१६८. तए णं सा जमालिस्स खत्तिय- ततः सा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य माता ताम् १६८. क्षत्रियकुमार जमालि की उस कुमारस्स माता तं अणि8 अकंतं अनिष्टाम् अकान्तां अप्रियाम् अमनोज्ञाम् अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ, अप्पियं अमणुण्णं अमणामं अस्सुय- 'अमणाम' अश्रुतपूर्वां गिरं निशम्य अमनोहर और अश्रुतपूर्व वाणी को सुनकर, पुव्वं गिरं सोच्चा निसम्म सेया- स्वेदागतरोमकूपप्रगलत् 'चिलिण' गात्रा, अवधारण कर माता के रोमकूपों में स्वेद गयरोमकूवपगलंतचिलिणगत्ता, सोग- शोकभरप्रवेपितङ्गाङ्गी निस्तेजा दीनविमन- आ गया, उसके स्रवण से शरीर गीला हो भरपवेवियंगमंगी नित्तेया दीणविमण- वदना, करतलमलिता इव कमलमाला,
गया। शोक के आघात से उसके अंग वयणा, करयलमलियव कमलमाला, तत्क्षणावरुग्णदुर्बलशरीर लावण्यशून्य
कांपने लगे। वह निस्तेज हो गई। उसका तक्खणओलुग्ग-दुब्बलसरीरलायण्ण- निश्छाया, गतश्रीका प्रशिथिलभूषणपतत्
मुख दीन और विमनस्क हो गया। वह हाथ सुन्ननिच्छाया, गयसिरीया पसिढिल- 'खुण्णिय' संचूर्णित-धवलवलय-प्रभ्रष्टोत्त
से मली हुई कमलमाला की भांति हो गई। भूसण-पडत-खुण्णियसंचुण्णियधवल- रीया, मूविशनष्टचेतःगुर्वी, सुकुमार
उसका शरीर उसी क्षण म्लान, दुर्बल, वलय-पन्भट्ठ-उत्तरिज्जा, मुच्छा- विकीर्ण-केश-हस्ता, परशुनिकृता इव
लावण्यशून्य, आभाशून्य और श्री विहीन वसणढ-चेतगरुई, सुकुमालवि-किण्ण- चम्पकलता, निवृतमह इव इन्द्रयष्टिः,
हो गया। गहने शिथिल हो गए। धवलकेस-हत्था, परसुणियत्त व्व चंपगलया, विमुक्तसन्धि-बन्धना कुट्टिमतले धस इति
कंगन धरती पर गिरकर मोच खाकर सङ्गिः निपतिता। निव्वत्तमहे व्व इंदलट्ठी, विमुक्क
खण्ड-खण्ड हो गए। उत्तरीय खिसक
गया। मूच्छविश चेतना के नष्ट होने पर संधिबंधणा कोट्टिमत-लंसि धसत्ति
शरीर भारी हो गया। सुकोमल केशराशि सव्वंगेहिं सनिवडिया॥
बिखर गई। परशु से छिन्न चंपकलता की भांति और उत्सव से निवृत्त होने पर इन्द्र यष्टि की भांति उसके संधि-बंधन शिथिल हो गए. वह अपने सम्पूर्ण शरीर के साथ रत्नजटित आंगन में धम से गिर पड़ी।
भाष्य १. सूत्र-१६८
आलुग-अवरुग्ण, म्लान। शब्द विमर्श
निच्छाय-निष्प्रभ। चिलिण-क्लिन्न, भीगा हुआ।
खण्णिय-धरती पर गिरने के कारण मोच खाया हआ।' वृत्ति में विलीन पाठ का अर्थ क्लिन्न किया गया है-विलीनानि केसहत्थ-केश-समूह। च क्लिन्नानि गात्राणि यस्याः।'
इंदयट्ठी-इन्द्र महोत्सव के अवसर पर एक काष्ठमय स्तूप दीणविमण वयण-दीन और विमनस्क मुख वाला।
बनाया जाता था ।द्रष्टव्य भगवई ९/१५८ वृत्ति में इसका अर्थ दीन और विमनस्क जैसे मुख वाला किया विमुक्कसंधिबंधण-संधि-बंधन शिथिल हो गया-श्लथीगया है -दीनस्य इव विमनस इव वदनं यस्याः सा तथा।
कृत-संधिबंधनाः।
१.भ, वृ. ९.१६८ २. भ. वही.०/१६८
३. भ. वही. ९/१६८-भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि। ४. भ. वही. ९/१६८।
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