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________________ श.९ : उ. ३३ : सू. १६५,१६६ २८६ भगवई समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति समाणे हद्वतुढे समणं भगवं महावीरं हृष्टतुष्टः श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता । नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा तम् एव तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, चतुर्घण्टम् अश्वरथम आरोहति, आरुह्य दुरुहित्ता समणस्स भगवओ श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकाद् महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ बहुशालकाद् चैत्याद् प्रतिनिष्कामति, चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख. प्रतिनिष्क्रम्य सकोरेण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण मित्ता सकोरेंट-मल्लदामेण छत्तेणं धार्यमाणेन महाभट-'चडकर' 'पहकर' धरिज्जमाणेणं महयाभडचडगर- वृन्दपरिक्षिप्तः, यत्रैव क्षत्रियकुण्डग्रामः नगरं पहकरवंद-परिक्खित्ते, जेणेव खत्तिय- तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य क्षत्रियकुंड-ग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, कुण्डग्राम नगरं मध्यमध्येन यत्रैव स्वकं गृहं उवागच्छित्ता खत्तिय-कुंडग्गामं नयरं यत्रैव बाहिरिका उपस्थानशाला तत्रैव मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव उपागच्छति, उपागम्य तुरगान् निगृह्णाति, बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव निगृह्य रथं स्थापयति, स्थापयित्वा रथात् उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरण प्रत्यारोहति, प्रत्यारुह्य यत्रैव आभ्यन्तरिकी निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता उपस्थानशाला यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैव रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव । उपागच्छति, उपागम्य अम्बापितरौ जयेन अभिंतरिया उवट्ठाणसाला, जेणव । विजयेन वर्द्धयति. वर्द्धयित्वा एवम् अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, अवादीत्-एवं खलु अम्बतातः! मया उवागच्छित्ता अम्मापियरो जएणं श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मः विजएणं वद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं निशान्तः सः अपि च मया धर्मः इष्टः, वयासी- एवं खलु अम्मताओ! मए प्रतीष्टः, अभिरुचितः। समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए अभिरुइए। महावीर के इस प्रकार कहने पर हृष्टतुष्ट हो गया। वह श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर वह उसी चार घण्टाओं वाले अश्वस्थ पर आरूढ़ होता है। आरूढ़ होकर श्रमण भगवान महावीर के पास से बहुशालक चैत्य से निर्गमन करता है। निर्गमन कर कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण करता है। महान् सुभटों के सुविस्तृत संघात वृन्द से परिक्षिप्त होकर जहां क्षत्रियकुण्डग्राम नगर है, वहां आता है। वहां आकर क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बीचो-बीच जहां अपना घर है, जहां बाहर उपस्थानशाला है, वहां आता है, वहां आकर घोड़ों की लगाम को खींचता है, खींचकर रथ को ठहराता है, ठहराकर रथ से उतरता है, उतरकर जहां आभ्यंतर उपस्थानशाला है, जहां मातापिता हैं, वहां आता है, वहां आकर जय हो-विजय हो, इस प्रकार (माता पिता का) वर्धापन करता है, वर्धापन कर इस प्रकार बोला-माता-पिता! मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुना है। वही धर्म मुझे इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित है। भाष्य १.सूत्र-१६५ द्रष्टव्य २/५२ का भाष्य। १६६. तए णं तं जमालिं खत्तिय-कुमारं ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारं अम्बापितरौ १६६. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि अम्मापियरो एवं वयासी- धन्ने सि णं एवम् अवादीत-धन्योऽसि त्वं जात! को इस प्रकार कहा-पुत्र! तुम धन्य हो, तुमं जाया! कयत्थे सि णं तुम जाया! कृतार्थोसि त्वं जात! कृतपुण्योऽसि त्वं पुत्र! तुम कृतार्थ हो, पुत्र! तुम कृतपुण्य कयपुण्णे सि णं तुमं जाया! जात ! कृतलक्षणोऽसि त्वं जात! यत् त्वया (भाग्यशाली) हो, पुत्र! तुम कृतलक्षण कयलक्खणे सि णं तुम जाया! जण्णं श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मः (लक्षण-सम्पन्न) हो। जो कि तुमने श्रमण तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स निशान्तः, सः अपि च त्वया धर्मः, इष्टः, भगवान महावीर के पास धर्म को सुना है, अंतियं धम्मे निसंते, से वि य ते धम्मे प्रतीष्टः, अभिरुचितः। वह धर्म तुम्हें इष्ट, प्रतीप्सित और इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। अभिरुचित है। भाष्य १.सूत्र-१६६ कृतार्थ-वह व्यक्ति जिसने अपना प्रयोजन सिन्द्र किया है। कृतलक्षण-वह व्यक्ति जिसने शरीर के लक्षण-देह चिह्न सार्थक किए हैं। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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