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भगवई
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क्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्व- सर्वभाषानुगामिन्या सरस्वत्या योजनभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयण- निर्झरिणा स्वरेण अर्द्धमागध्यां भाषायां णीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भाषते-धर्म परिकथयति यावत् परिषद् भासइ-धम्म परिकहेइ जाव परिसा प्रगता। पडिगया।
श.९ : उ. ३३ : सू. १६३-१६५ थे। उनका स्वर शरद ऋतु के मेघ के नवगर्जन, क्रोञ्च के निर्घोष तथा दुन्दुभिः की ध्वनि के समान मधुर और गंभीर था। धर्म कथन के समय महावीर की वाणी वक्ष में विस्तृत, कंठ में वर्तुल और सिर में संकीर्ण होती थी। वह गुनगुनाहट और अस्पष्टता से रहित थी। उसमें अक्षर का सन्निपात स्पष्ट था। वह स्वरकला से पूर्ण
और गेय रोग से अनुरक्त थी। वह सर्वभाषानुगामिनी-स्वतः ही सब भाषाओं में अनूदित हो जाती थी। भगवान एक योजन तक सुनाई देने वाले स्वर में अर्द्धमागधी भाषा में बोले। प्रवचन के पश्चात् परिषद् लौट गई।
१६४. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः श्रमणस्य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए महावीरस्य अन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्त- हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः माणदिए णदिए पीइमणे परमसोम- प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविणस्सिए हरिस-वसविसप्पमाणहियए सर्पहृदयः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय उट्ठाए उढेइ, उद्वेत्ता समणं भगवं श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणमहावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्नमंसित्ता एवं वयासी-सहहामि णं भंते! श्रद्दधामि, भदन्त! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते! प्रत्येमि भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम, रोचे
___भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्. अभ्युत्तिष्ठामि निग्गंथं पावयणं, अब्भुढेमि णं भंते! भदन्त ! नैर्ग्रन्थे प्रवचने. एवमेतद् भदन्त ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते! तहमेयं । तथैतद् भदन्त ! अवितथमेतद् भदन्त ! भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं । असंदिग्धमेतद् भदन्त ! इष्टमेतद् भदन्त ! भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं प्रतीष्टमेतद् भदन्त! इष्टप्रतीष्टमेतद् भंते! इच्छि-यपडिच्छियमेयं भंते!-से । भदन्त!-तत् यथेदं यूयं वदथ, यत् नवरंजहेयं तुब्भे वदह, जं नवरं-देवाणु- देवानुप्रियाः! अम्बापितरौ आपृच्छामि. प्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए । ततः अहं देवानुप्रियाणाम् अन्तिकं मुण्डः णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भूत्वा अगाराद् अनगारतां प्रव्रजामि। भवित्ता अगाराओ अणगारियं यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम्। पव्वयामि।
१६४. वह क्षत्रियकुमार जमालि श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट चित्तवाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मनवाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठता है। उठकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-भंते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हूं। भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रतीति करता हूं, भंते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में रुचि करता हूं. भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में अभ्युत्थान करता हूं। भंते! यह ऐसा ही है! भंते ! यह तथा (संवादिता-पूर्ण) है। भंते! यह अवितथ है। भंते! यह असंदिग्ध है। भंते! यह इष्ट है। भंते! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। भंते! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसे आप कह रहे हैं, इतना विशेष है-देवानुप्रिय! मैं माता-पिता से पूछ लेता हूं, तत्पश्चात् मैं देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होऊंगा। देवानुप्रिय! जैसे सुख हो, प्रतिबंध मत करो।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं॥
१६५. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे
ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः श्रमणेन
१६५. 'क्षत्रियकुमार जमालि श्रमण भगवान
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