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भगवई
श.९:उ.३३ : सू. १६२-१६३
२८४ १६२. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः यत्रैव जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, मज्जनगृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य उवागच्छित्ता प्रहाए कयबलिकम्मे जाव स्नातः कृतबलिकर्मा यावत् चन्दनोत्क्षिप्त- चंदणुक्खित्तगायसरीरे सव्वालंकारवि. गावशरीरः सर्वालङ्कारविभूषितः मज्जनभूसिए मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, गृहात प्रतिनिष्क्राम्यति. प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उव- बाहिरिका उपस्थानशाला, यत्रैव चतुर्घण्टः ट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे। अश्वरथः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्यतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउ- चतुर्घण्टम् अश्वरथम् आरोहति, आरुह्य ग्घंट आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता सकोरेण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण धार्यमाणेन सकोरेंटमल्लदा-मेणं छत्तेणं धरिज्ज- महत् भट-'चडकर' 'पहकर' वृन्दपरिक्षिप्तः माणेणं, महया-भडचडकर-पहकरवंद- क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छपरिक्खित्ते खत्तियकुंडग्गामं नगरं ति, निर्गत्य यत्रैव माहनकुण्डग्रामः नगरं मज्झं-मज्झेणं निगच्छइ, निग्गच्छित्ता यत्रैव बहशालकं चैत्यं तत्रैव उपागच्छति, जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जेणेव । उपागम्य तुरगान निगृह्णाति, निगृह्य रथं बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, स्थापयति, स्थापयित्वा रथात् प्रत्यारोहति, उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हेइ, निगि- प्रत्यारुह्य पुष्पताम्बूलायुधादिकम् उपानहः ण्हेत्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता रहाओ च विसृजति, विसृज्य एकशाटिकम् पच्चोरुहति, पच्चोरुहिता पुप्फतंबोला- उत्तरासङ्गं करोति, कृत्वा आचान्तः चोक्षः उहमादियं पाहणाओ य विसज्जेति, परमशुचीभूतः अञ्जलिमुकुलितहस्तः यत्रैव विसज्जेत्ता एग-साडियं उत्तरासंगं । श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति करेइ, करेत्ता आयं ते चोक्खे उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः परमसुइब्भूए अंजलिमउलियहत्थे जेणेव आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, नमस्यति. वन्दित्वा-नमस्यित्वा त्रिविधया उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पर्युपासनया पर्युपास्ते। तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तिविहाए पन्जुवासणाए पजुवासइ॥
१६२. क्षत्रियकुमार जमालि जहां मर्दन घर है, वहां आता है। वहां आकर स्नान तथा बलिकर्म कर यावत् शरीर के अवयवों पर चंदन का लेप कर, सर्व अलंकारों से विभूषित होकर मर्दन घर से निकलता है, निकलकर जहां बाहर उपस्थानशाला है जहां चार घण्टाओं वाला अश्वरथ है, वहां आता है, आकर चार घण्टाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ़ होता है। आरूढ़ होकर कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण करता है, महान् सुभटों के सुविस्तृत संघातवृन्द से परिक्षिप्त होकर क्षत्रिय कुण्डग्राम नगर के ठीक मध्य से निर्गमन करता है, निर्गमन कर जहां ब्राह्मणकुंडग्राम नगर है, जहां बहुशालक चैत्य है, वहां आता है, आकर घोड़ों की लगाम को खींचता है, खींचकर रथ को ठहराता है, ठहराकर रथ से उतरता है, उतरकर पुष्प, तंबोल, आयुध आदि तथा उपानत को विसर्जित करता है, विसर्जित कर एक शाटक वाला उत्तरासंग करता है। उत्तरासंग कर आचमन करता है, अशुचि द्रव्य का अपनयन करता है, परम शुचीभूत होकर अंजलियों को मुकुलित कर सिर पर रखता है, जहां श्रमण भगवान महावीर है वहां आता है, आकर श्रमण भगवान को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना करता है।
१६३. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः जमालेः १६३. श्रमण भगवान महावीर ने क्षत्रिय
जमालिस्स खत्तियकुमारस्स, तीसे य क्षत्रियकुमारस्य तस्यां च महामहत्याम् कुमार जमालि को उस विशाल-परिषद् में महतिमहालियाए इसिपरिसाए मुणि- ऋषिपरिषदि मुनिपरिषदि यतिपरिषदि धर्म का प्रतिबोध दिया, जिस परिषद् में परिसाए जइपरिसाए देवपरि-साए देवपरिषदि अनेकशतायाम् अनेकशत- ऋषिपरिषद्, मुनिपरिषद्, यतिपरिषद् और अणेगसयाए अणेगसयवंदाए अणेग- वृन्दायाम् अनेकशतवृन्दपरिवारे ओघबलः देवपरिषद् का समावेश है। उन परिषदों में सयवंदपरियालाए ओहबले अइबले अतिबलः महाबलः अपरिमित-बल-वीर्य- सैकड़ों-सैकड़ों व्यक्ति और सैकड़ोंमहब्बले अपरिमियबल-वीरिय - तेय- तेजस्-माहात्म्य-कान्तियुक्तः शारद- सैकड़ों मनुष्यों के समूह बैठे हुए थे। माहप्पकंति-जुत्ते सारय - नवत्थणिय .. नवस्तनित - मधुरगम्भीर - क्रोञ्च-निर्घोष - भगवान महावीर का बल ओघबल, महुरगंभीर-कोंचणिग्योस-दुंदुभिस्सरे उरे दुन्दुभिस्वरः उरसि विस्तृतया कण्ठे वर्तितया अतिबल और महाबल-इन तीन रूपों में वित्थ-डाए कंठे वट्टियाए सिरे समा- शिरसि समाकीर्णया अगरलया अमन्मनया प्रकट हो रहा था। वे अपरिमित बल, इण्णाए अगरलाए अमम्मणाए सुव्वत्त सुव्यक्ताक्षर सन्निपातिकया पूर्णरक्तया वीर्य, तेज, माहात्म्य और कांति से युक्त
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