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भगवई
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श.९: उ. ३३ : सू. १५९.१६१
भाष्य १.सूत्र-१५८
और भूत- ये दिव्य शक्तियां हैं। इनकी पूजा प्रचलित थी। कूप, प्राचीन काल में महोत्सव मनाने की परंपरा थी। कुछ तालाब, नदी, द्रह, पर्वत, वृक्ष, चैत्य और स्तूप-इनकी पूजा का भी महोत्सव दिव्य शक्तियों को लक्ष्य कर मनाए जाते थे और कुछ प्रचलन था। इनकी पूजा के अवसर पर महोत्सव मनाया जाता था। प्राकृतिक पदार्थों को लक्ष्य कर मनाए जाते थे। इससे ज्ञात होता है उग्र, भोज आदि के लिए द्रष्टव्य २/३० का भाष्य। कि उस समय देव पूजा और प्रकृति पूजा-दोनों का जनमानस पर कंचुकी-द्वारपाल, अन्तःपुर का अध्यक्ष। प्रभाव था। इन्द्र, स्कंद (कार्तिकेय) मुकुन्द (वासुदेव) नाग, यक्ष
१५९. तए णं से कंचुइ-पुरिसे जमा-लिणा ततः सः कञ्चुकिपुरुषः जमालिना १५९. क्षत्रिय कुमार जमालि के यह कहने
खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्टे क्षत्रियकुमारेण एवम् उक्ते सति हृष्टतुष्टः पर वह कंचुकीपुरुष हृष्ट-तुष्ट हो गया। समणस्स भगवओ महावीरस्स आग । श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य आगमन- उसने श्रमण भगवान महावीर के आगमन मणगहियविणिच्छए करयलपरि- गृहीतविनिश्चयः करतलपरिगृहीतं दशनखं का निश्चय होने पर दोनों हथेलियों से ग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए शिरसावर्त्तम् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जमालिं निष्पन्न संपुट आकार वाली दस अंजलिं कट्ट जमालिं खत्तियकुमारं क्षत्रियकुमारं जयेन विजयेन वर्धापयति, नखात्मक अंगुली को सिर के सम्मुख जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं । वर्धापयित्वा एवम् अवादीत्-नो खलु घुमाकर, मस्तक पर टिका कर वयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! अज्ज देवानुप्रिय! अद्य क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे क्षत्रियकुमार जमालि को जय-विजय के खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदमहे इ वा इन्द्रमहः इति वा यावत् निर्गच्छन्ति। एवं द्वारा वर्धापित किया, वर्धापित कर इस जाव निग्गच्छति। एवं खलु। खलु देवानुप्रिय! अद्य श्रमणः भगवान् प्रकार बोला-देवानुप्रिय! आज देवाणुप्पिया! अज्ज समणे भगवं महावीरः आदिकरः यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी क्षत्रियकुंडग्राम नगर में न इन्द्र महोत्सव है महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्व. माहनकुण्डग्रामस्य नगरस्य बहिः बहुशालके यावत् सार्थवाह आदि निगमन कर रहे हैं। दरिसी माहणकुंडग्गामस्स नयरस्स चैत्ये यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य देवानुप्रिय! आज श्रमण भगवान महावीर बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति, आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा ततः एते बहवः उग्राः भोजाः यावत् ब्राह्मणकुंडग्राम नगर के बाहर बहुशालक अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं एते निर्गच्छन्ति।
चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति बहवे उग्गा, भेगा जाव निग्गच्छंति॥
लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। इसलिए ये बहुत उग्र, भोज यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं।
१६०. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः कञ्चुकि- १६०. क्षत्रियकुमार जमालि कंचुकी- पुरुष कंचुइ-पुरिसस्स अंतियं एयमढे सोच्या पुरुषस्य अन्तिकम एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण निसम्म हट्ठतुढे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, हृष्टतुष्टः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, कर हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसने कौटुम्बिक सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो शब्दयित्वा एवम अवादीत्-क्षिप्रमेव भो पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरह देवानुप्रियाः! चतुर्घण्टम् अश्वरथं युक्तमेव कहा-देवानुप्रियोः शीघ्र ही चार घण्टाओं जुत्तामेव उवट्टवेह, उवट्ठवेत्ता मम उपस्थापथ उपस्थाप्य माम् एताम् वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह॥ आज्ञप्तिका प्रत्यर्पयथ।
करो, उपस्थित कर मेरी आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो।
१६१. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः जमालिना क्षत्रिय- १६१. कौटुम्बिक पुरुषों ने क्षत्रियकुमार जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता कुमारेण एवम् उक्ताः सन्तः चतुर्घण्टम् जमालि के यह कहने पर चार घण्टाओं समाणा चाउग्घंटे आसरहं जुत्तामेव अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापयन्ति, वाले अश्वरथ को जोतकर उपस्थित उवट्ठवेंति, उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं उपस्थाप्य ताम् आज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्ति। किया। उपस्थित कर उस आज्ञा का पच्चप्पिणंति।
प्रय॑पण किया।
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