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________________ श. ११ : उ. ११ : सू. १६८-१७० मासद्ध १६९. तए णं से महब्बले अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं सामाइयमाइया चोद्दसपुव्वाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ - छट्ठम- दसम - दुबालसेहिं मासखमणेहि विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुणाई दुवालस वासाई सामण्णपरियागं पाउण, पाउणत्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समा-हिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्डुं चंदिम- सूरिय- गहगण-नक्खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणाई, बहूई जयसाई, बहूई जोयणसह - स्साई, बहूई जोयणसयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डुं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण- सणकुमार - माहिंदे कप्पे वीईवइत्ता बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस साग - रोवमाई ठिती पण्णत्ता । तत्थ णं महब्बलस्स वि देवस्स दस सागरोवमाइंठिती पण्णत्ता । से णं तुम सुदंसणा ! बंभलोगे कप्पे दस सागरोवमाई दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्ता तओ देव - लोगाओ आउक्खणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियग्गामे नगरे सेट्ठि- कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाए । १७०. तए णं तुमे सुदंसणा ! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णय-परिणयमेत्तेणं जोव्वणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलि - पण्णत्ते धम्मे निसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तं सुट्टु णं तुमं सुदंसणा ! इदाणिं पि करेसि। से तेणट्टेणं सुदंसणा ! एवं बुच्चइ-अत्थि णं एतेसिं पलि-ओवमसागरोवमाणं खपति वा अवचएति वा ।। Jain Education International ४४० ततः सः महाबलः अनगारः धर्मघोषस्य अन्तिकं सामायिकादिकानि चतुर्दशपूर्वाणि अधीते, अधीत्य बहुभिः चतुर्थ षष्ठअष्टम-दशम-द्वादशैः मासार्द्धमासक्षपणैः विचित्रैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि द्वादशवर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा षष्ट भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा ऊर्ध्वं चन्द्रमस्-सूर्यग्रहगण-नक्षत्र-तारारूपाणां बहूनि योजनानि, बहूनि योजनशतानि बहूनि योजन सहस्राणि बहूनि योजनशतसहस्राणि, बह्वयः योजनकोट्यः बह्वयः योजन- कोटिकोट्याः ऊर्ध्वं दूरम् उत्पत्य सौधर्मेशान-सनत्कुमारमाहेन्द्रे कल्पे व्यतिव्रज्य ब्रह्मलोके कल्पे देवत्वेन उपपन्नः । तत्र अस्त्येककानां देवानां दश सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र महाबलस्यापि देवस्य दश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । अथ त्वं सुदर्शन! ब्रह्मलोके कल्पे दश सागरोपमाणि दिव्यान् भोगभागान् भुञ्जानः विहृत्य तस्मात् देवलाकात् आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा इहैव वाणिज्यग्रामे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रत्वेन प्रत्यायातः । ततः त्वं सुदर्शन ! उन्मुक्तबालभावेन विज्ञकपरिणतिमात्रेण यौवनमनुप्राप्न तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिकं केवलिप्रज्ञप्तः धर्मः निशान्तः, सोऽपि च धर्मः इष्टः, प्रतीष्टः, अभिरुचितः । तत् सुष्ठु त्वं सुदर्शन ! इदानीमपि करोषि । अथ तेनार्थेन ! एवमुच्यते - अस्ति एतयोः पल्योपमसागरोपमयोः क्षयः इति वा अवचयः इति वा। For Private & Personal Use Only भगवई बताओ, हम क्या दें ? क्या वितरण करें ? शेष जैसे जमालि की वक्तव्यता वैसे ही यावत् १६९. महाबल अनगार ने धर्मघोष अनगार के पास सामायिक आदि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया, अध्ययन कर चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, द्वादश भक्त, अर्धमास और मासक्षपण आदि विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहु प्रतिपूर्ण बारह वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। पालन कर एक महीने की संलेखना से अपने आपको कृश बनाकर, अनशन के द्वारा साठ भक्त का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर, चांद, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र तारा-रूप, बहुत योजन ऊपर बहुत सौ, हजार, लाख करोड़ और क्रोडाक्रोड योजन ऊपर, सौधर्म, सनत्कुमार माहेन्द्र कल्प का व्यतिक्रमण कर ब्रह्मलोक कल्प में देव रूप में उपपन्न हुआ। वहां कुछ देवों की स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। वहां महाबल देव की स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। सुदर्शन ! तुम ब्रह्मलोक कल्प में दस सागरोपम काल तक दिव्य भोगाई भोगों को भोगते हुए विहार कर उस देवलोक से आयु क्षय, भव क्षय और स्थिति क्षय के अनंतर उस देवलोक से च्यवन कर इसी वाणिज्य ग्राम नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। १७०. सुदर्शन! तुमने बाल्यावस्था को पा कर, विज्ञ और कला के पारगामी बन कर, यौवन को प्राप्त कर तथारूप स्थविरों के पास केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुना। वही धर्म इच्छित, प्रतीच्सित, अभिरुचित है। सुदर्शन! वह अच्छा है, जो तुम अभी कर रहे हो । सुदर्शन! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - इन पल्योपम-सागरोपम का क्षय- अपचय होता है। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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