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________________ भगवई १७१. तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म भे अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं हापूर- मग्गणगवेसणं करेमाणस्स सणी - पुव्वे जातीसरणे समुप्पन्ने, एयम सम्मं अभिसमेति ॥ १७२. तए णं ते सुंदसणे सेट्ठी सम-णेणं भगवया महावीरेणं संभारिय- पुब्वभवे दुगुणाणीयसङ्घसंवेगे आणंदसुपुण्णनयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! -से जहेयं तुभेवदह त्ति कट्टु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्क- मइ, सेसं जहा उसभदत्तस्स जाव सव्व- दुक्खप्पहीणे, नवरं - चोइस पुब्वाई अहिज्जइ, बहुपडिपुणाई दुवालस वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, सेसं तं चेव ॥ १७३. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।। Jain Education International ४४१ ततः तस्य सुदर्शनस्य श्रेष्ठिनः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य शुभेन अध्यवसायेन शुभेन परिणामेन लेश्याभिः विशुध्यमानाभिः तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन ईहापोह - मार्गण - गवेषणं कुर्वतः 'संज्ञीपूर्व जातिस्मरणं' समुत्पन्नम्, एनमर्थं सम्यक् अभिसमेति । ततः सः सुदर्शनः श्रेष्ठी श्रमणेन भगवता महावीरेण संस्मारितपूर्वभवः द्विगुणानीत श्रद्धासंवेगः आनन्दाश्रुपूर्णनयनः श्रमण भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणप्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्विा एवमवादीत् एवमेतद् भदन्त ! तथैतद् भदन्त ! अवितथमेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् भदन्त ! इष्टमेतद् भदन्त ! प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! इष्ट-प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! तत् यथैवं यूयं वदथ इति कृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रामति, शेषं यथा ऋषमदत्तस्य यावत् सर्वदुक्खप्रहीणः, नवरं चतुर्दश पूर्वाणि अधीते, बहुप्रतिपूर्णानि द्वादश वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति शेषं तत् चैव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति For Private & Personal Use Only श. ११ : उ. ११ : सू. १७१-१७३ १७१. श्रमण भगवान महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या और तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के द्वारा ईहा, अपोह, मार्गणा गवेषणा करते हुए सुदर्शन श्रेष्ठी को पूर्ववर्ती संज्ञी भवों का जाति स्मृति ज्ञान समुत्पन्न हुआ। उसने इस अर्थ को सम्यक् साक्षात् जान लिया। १७२. श्रमण भगवान महावीर द्वारा पूर्वभव का जाति स्मृति ज्ञान कराने से सुदर्शन श्रेष्ठी की श्रद्धा और संवेग द्विगुणित हो गए। उसके नेत्र आनंदाश्रु से पूर्ण हो गए। उसने श्रमण भगवान महावीर को दाईं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, वंदन - नमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते! यह ऐसा ही है, भंते! यह तथा (संवादितापूर्ण) है, भंते! यह अवितथ है, भंते! यह असंदिग्ध है। भंते! यह इष्ट है, भंते! यह प्रतीप्सित है, भंते! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसा आप कह रहे हैं ऐसा भाव प्रदर्शित कर वह उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) की ओर गया शेष जैसे ऋषभदत्त (भ.९ / १५१) की वक्तव्यता वैसे ही यावत सर्व दुःखों अंत किया, इतना विशेष है-चौदहपूर्वों का अध्ययन किया, बहुप्रतिपूर्ण बारह वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया, शेष पूर्ववत् । १७३. भंते! वह ऐसा ही है, भंते! वह ऐसा ही है। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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