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________________ भगवई वळावेत्ता एवं वयासी - नो खलु देवाप्पिया! अज्ज हत्थिणापुरे नगरे इंदम इ वा जाव निग्गच्छंति । एवं खलु देवाप्पिया! अज्ज विमलस्स अहओ पओप्प धम्मघोसे नामं अणगारे हत्थणापुरस्स नगरस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे अहापडिवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणे विहरइ, तए णं एते बहवे उग्गा, भोगा जाव निग्गच्छति ॥ १६६. तए णं से महब्बले कुमारे तहेव रहवरेणं निग्गच्छति । धम्मका जहा केसिसामिस्स । सो वि तहेव अम्मापियरं आपुच्छइ, नवरं - धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइत्तए । तहेव वृत्तपडिवुत्तिया, नवरं इमाओ य ते जाया ! विउलरायकुलबालियाओ कलाकुसल - सव्वकाललालिय- सुहोचियाओ सेसं तं चेव जाव ताहे अकामाई चैव महब्बलकुमारं एवं वयासी- तं इच्छामो ते जाया ! एगदिवसमवि रज्जसिरिं पासित्तए । १६७. तए णं से महब्बले कुमारे अम्मापि वयणमणुयत्तमाणे णीए संचिट्ठा ॥ तुसि १६८. तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सहावेs, एवं जहा सिवभद्दस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियव्वो जाव अभिसिंचति, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिर- सावत्तं मत्थए अंजलि क महब्बलं कुमारं जएणं विजएणं वावेति वळावेत्ता एवं वयासी भण जाया! किं देमो ? किं पयच्छामो ? सेसं जहा जमालिस्स तहेव जाव Jain Education International ४३९ देवानुप्रियः ! अद्य हस्तिनापुरे नगरे इन्द्रमहः इति वा यावत् निर्गच्छन्ति। एवं खलु देवानुप्रियः ! अद्य विमलस्य अर्हतः 'पओप्पए' धर्मघोषः नाम अनगारः हस्तिनापुरस्य नगरस्य बहिः सहस्राम्रवने उद्याने यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति, ततः एते बहवः उग्राः भोगाः यावत् निर्गच्छन्ति । ततः सः महाबलः कुमारः तथैव रथवरेण निर्गच्छति। धर्मकथा यथा केशिस्वामिनः । सः अपि तथैव अम्बापितरौ आपृच्छति, नवरं धर्मघोषस्य अनगारस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम् । तथैव उक्तप्रत्युक्तिका, नवरं इमाः च ते जातः ! विपुलराज - कुलबालिकाः कलाकुशल- सर्वकलालालित-सुखोचिताः शेषं तत् चैव यावत् तदा अकामानि चैव महाबलकुमारम् एवम् अवादिष्टाम्-तत् इच्छावः तव जात! एकदिवसमपि राज्यश्रियं द्रष्टुम् । ततः सः महाबलः कुमारः अम्बा पितृवचनमनुवर्त्तमानः तूष्णीकः संतिष्ठते। ततः सः बलः राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, एवं यथा शिवभद्रस्य तथैव राजाभिषेकः भणितव्यः यावत् अभिसिञ्चति, करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा महाबलं कुमारं जयेन विजयेन वर्धयति, वर्धयित्वा एवम् अवादीत्-भण जात! किं दद्वः, किं प्रयच्छावः ? शेषं यथा जमालेः तथैव ताव For Private & Personal Use Only श. ११ : उ. ११ : सू. १६५-१६८ टिकाकर महाबल कुमार को 'जय विजय' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर वह इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! आज हस्तिनापुर नगर में न इन्द्रमहोत्सव है यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं। देवानुप्रिय ! आज अर्हत् विमल के प्रशिष्य, धर्मघोष नामक अनगार हस्तिनापुर नगर के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में प्रवास योग्यस्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं इसलिए ये बहुत उग्र, भोज यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं। १६६. महाबल कुमार ने उसी प्रकार श्रेष्ठ रथ पर बैठकर निर्गमन किया। धर्म कथा केशी स्वामी की भांति वक्तव्य है। उसने उसी प्रकार माता-पिता से पूछा, इतना विशेष है- धर्मघोष अनगार के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होना चाहता हूं। उसी प्रकार उत्तर- प्रत्युत्तर, इतना विशेष है-जात! ये तुम्हारी आठ गुण वल्लभ पत्नियां, जो विशाल कुल की बालिकाएं, कला कुशल, सर्वकाल लालित, सुख भोगने योग्य शेष (भ. ९/ १७३) जमालि की भांति वक्तव्यता यावत् उसके माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक महाबल कुमार को इस प्रकार कहा जात! हम तुम्हें एक दिन के लिए राज्यश्री से संपन्न (राजा) देखना चाहते हैं। १६७. महाबल कुमार माता-पिता के वचन का अनुवर्तन करता हुआ मौन हो गया। १६८. बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, इस प्रकार शिवभद्र की भांति राज्याभिषेक वक्तव्य हैं, यावत् अभिसिक्त किया, दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर महाबल कुमार को 'जय विजय' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार कहा जात! www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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